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देव पशु मनुष्य की नारी को सेवते । करत अब्रह्म जो नरक पद लेवते ।। धन्य साधु राज महा ब्रह्म उपसेवेते। पाय वह मोक्ष सौख्य हर्ष मन ठेवते।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तम ब्रह्मचर्य धर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।10।।
चरित्र दर्श ज्ञान को धार विपरीत ही । सेय मिथ्यात्व का करत है अनीत ही।। धन्य धन्य साधु रत्न तीन को साधही । पाय वह मोक्ष सौख्य होत है अवाध ही ।। ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रय धर्मेभ्यो अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥11॥
125 मलदोष (जोगीरासा)
देव शास्त्र गुरु धर्म के ऊपर करता शंका भाई। सम्यग्दर्शन दोष यही है भव बन में भरमाई || होय निशंकि जिन वचनों में सम्यग्दृष्टि हो । पूजूं उत्तम द्रव्य सु लेकर मोक्ष महा पद सोई।।
ऊँ ह्रीं शंकामल दोष रहित निशंकित गुणोपेतं सम्यग्दर्शनमार्गेभ्योऽघ्यं निर्वपामीति
स्वाहा॥1॥
कर्मणं परवश अन्तसहित है होय पाप का वीजा । ऐसे सुख में करता श्रद्धा समकित मल्ल कहिजा।।
छोड़ अथिर सब सुख की आशा समकित शुद्ध कहाया।
पूजं मन वच काय त्रियोगा वसु विधद्रव्य चढ़ाया।।
ऊँ ह्रीं कांक्षित मल दोष रहित निकांक्षित गुणोपेतं सम्यग्दर्शन मार्गेभ्योऽघ्यं निर्वपामीति
स्वाहा॥2॥
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