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असत्य पाप खान है नीच प्राणि बोलते। धार झठ राज वसु नर्क भव डोलते।। धन्य धन्य साधुराज सत्य उपजावते। पाय वह मोक्ष सौख्य भ्रमण नहीं खावते।।
ऊँ ह्रीं श्री उत्तम सत्य धर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।4।।
लोभ महादुक्खदा अनन्त सब जीव को। होत नहि तोष कभी कष्ट ही सदीव को।। धन्य धन्य साधु राज काटि लोभ नीव को। पाय वह मोक्ष सौख्य भ्रमण नहीं खावते।।
ऊँ ह्रीं श्री उत्तम शौच धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
निःसंयमी जीव दुक्ख पावते लखाय है। धार वह मनुष्य भव व्यर्थ में लुटाय है।। धन्य धन्य साधु रत्न संयमा को ध्याय है। पाय वह मोक्ष सौख्य गोत नहीं खाय है।।
ऊँ ह्रीं श्री उत्तम संयम धर्मांगाय नमः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
होय दो प्रकार तप बाह्य अभ्यन्तरा। करत ना अज्ञानी जीव यो ही भरा।। उग्र तप तपत है महा योगीश्वरा। पाय वह मोक्ष सौख्य होय जिनवर वरा।।
ऊँ ह्रीं श्री उत्तम तप धर्मांगाय नमः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।7।
त्याग नहीं करत जीव मोह राज चालते। धार राग द्वेष ही दुक्ख को पालते।। धन्य धन्य सन्तराज त्याग खुश हालते। पाय वह मोक्ष सौख्य दुक्ख को टालते।।
ॐ ह्रीं श्री उत्तम त्याग धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।8।।
संग चतुबीस ही देव जिनवर कहा। धारते संग जीव दुक्ख अन्त ना लहा।। धन्य धन्य नग्न हो सन्त त्यजते अहा। पाय वह मोक्ष सौख्य सन्त संग को दहा।।
ऊँ ह्रीं श्री उत्तम आकिंचन धर्मांगाय नमः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।9।।
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