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होय स्वभावी वषु अशुद्ध रत्नत्रय से शुद्ध। ऐसे मुनि तन ग्लानि करता समकित होय अशुद्ध।। होत नहीं है ग्लानि इससे समकित शुद्ध कहाई।
उत्तम द्रव्यसु अध्य बनाकर पूंजू मनवच काई। ऊँ ह्रीं अनिर्विचिकित्सा मलदोष रहितं निर्विचिकित्सा गुणोपेतं सम्यग्दर्शन मार्गेभ्योऽध्यं
निर्वपामीति स्वाहा।।3।
मिथ्यादर्शन पन्थि जनो की थुति करे हर्षाई। ये ही दर्शन दोष करत हैं जो भव भव दुखदाई।। खोटे मारग पन्थि जनो की नहीं प्रशंस उचरे हैं।
सम्यग्दर्शन पाले ज्ञानी, भवदधि से उतरे हैं।। ऊँ ह्रीं मूढदृष्टीमलदोष रहितं अमूढ़दृष्टि गुणोपेतं सम्यग्दर्शन मार्गेभ्योऽयं निर्वपामीति
स्वाहा।।4।।
पावन सम्यक् रत्न सुमारग अज्ञानी जन हरते। निन्दा होती धर्म तनी जब दर्शन मल स्वीकरते।। रत्नत्रय का मारग ज्ञाता पर अवगुण का छिपावे।
करता सम्यग्दर्शन शुद्ध जिन मारग हि दिपावे।। ॐ ह्रीं अनूपगुहन मलदोष रहित उपगूहन गुणोपेतं सम्यग्दर्शन मार्गेभ्योऽध्यं निर्वपामीति
स्वाहा।।5।।
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