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भव-सिन्धु पर्यो हूं नाथ, निकारो बाँह-पकर मेरी।। ओं ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप लेरी। फल-जुत जजन करूं मनसुख धरि, हरो जगत्-फेरी।। कुंथु सुन अरज दास-केरी, नाथ सुन अरज दास-केरी।
भव-सिन्धु पर्यो हूं नाथ, निकारो बाँह-पकर मेरी।। ओं ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।९।
पंचकल्याणक-अर्ध्यावली (छन्द मोतियादाम वर्ण 12)
सु सावन की दशमी-कलि जान, तज्यो सरवारथ-सिद्ध-विमान।
भयो गरभागम-मंगल सार, जजें हम श्रीपद अष्ट-प्रकार।। ओं ह्रीं श्रावणकृष्ण-दशम्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।१।
महा बैशाख सु एकम-शुद्ध, भयो तब जनम तिज्ञान-समृद्ध।
कियो हरि मंगल-मंदिर शीस, जजें हम अत्र तुम्हें नुत-शीश।। ओं ह्रीं बैशाखशुक्ल-प्रतिपदायां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।२।
तज्यो षट्-खंड-विभौ जिनचंद, विमोहित-चित्त चितार सुछंद।
धरे तप एकम-शुद्ध-विशाख, सुमग्न भये निज-आनंद चाख।। ओं ह्रीं बैशाखशुक्ल-प्रतिपदायां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।३।
सुदी-तिय-चैत सु चेतन शक्त, चहूँ अरि छय करि ता दिन व्यक्त।
भई समवसृत भाखि सुधर्म, जजू पद ज्यों पद पाइय-पर्म।। ओं ह्रीं चैत्रशुक्ल-तृतीयायां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।४।
सदी-बैशाख स एकम नाम, लियो तिहि द्यौस अभय-शिवधाम।
जजे हरि हर्षित मंगल गाय, समर्चत हूं तुहि मन-वच-काय।। ओं ह्रीं बैशाखशुक्ल प्रतिपदायां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा ।५।
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