________________
जयमाला
(अडिल्ल छन्द-मात्रा २१)
षट्-खंडन के शत्रु राज-पद में हने । धरि दीक्षा षट्-खंडन पाप तिन्हें दने । त्यागि सुदरशन-चक्र धरम-चक्री भये । करम-चक्र-चकचूर सिद्ध दिढ़-गढ़ लये ।१।
ऐसे कुंथु-जिनेश तने पद-पद्म को। गुन-अनंत-भंडार महासुख-सद्य को।
पूजू अरघ चढ़ाय पूरणानंद हो। चिदानंद अभिनंद इन्द्रगन-वंद हो ।२।
(पद्धरी छन्द-मात्रा १६) जय जय जय जय श्रीकुंथुदेव, तुम ही ब्रह्मा-हरि-त्रिंबकेव। जय बुद्धि-विदांबर विष्णु ईश, जय रमाकांत शिवलोक शीश ।३।
जय दया-धरंधर सष्टिपाल, जय-जय जग-बंध सगन-माल । सरवारथ-सिद्ध-विमान छार, उपजे गजपुर में गुन-अपार ।४। सुर-राज कियो गिर न्हौन जाय, आनंद-सहित जुत-भगति भाय । पुनि पिता सौंपिकर मुदित-अंग, हरि तांडव-निरत कियो अभंग ।५।
पुनि स्वर्ग गयो तुम इत दयाल, वय पाय मनोहर प्रजापाल । षटखंड-विभौ भोग्यो समस्त, फिर त्याग जोग धार्यो निरस्त ।६। तब घाति-घात केवल उपाय, उपदेश दियो सब-हित जिनाय । जाके जानत भ्रम-तम विलाय, सम्यग्दर्शन निर्मल लहाय ।७।
तुम धन्य देव किरपा-निधान, अज्ञान-क्षमा-तमहरन भान । जय स्वच्छ गुनाकर शुक्त सुक्त, जय स्वच्छ सुखामृत भुक्ति मुक्त ।८।
जय भौ-भय-भंजन कृत्यकृत्य, मैं तुमरो हूं निज भृत्य-भृत्य । प्रभु अशरन-शरन अधार धार, मम विघ्न-तूलगिरि जार-जार ।९।
जय कुनय-यामिनी सूर-सूर, जय मनवाँछित-सुख पूर-पूर । मम करमबंध दिढ़ चूर-चूर, निज-सम आनंद दे भूर-भूर ।१०। अथवा जब लों शिव लहूं नाहिं, तब लों ये तो नित ही लहाहिं।
556