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________________ अथवा मानवधर्म अथवा मग्ग (मार्ग) कहलाता था, सिन्धुघाटी के दिनों में ऋषभ पन्थ अथवा जैनधर्म के रूप में, वैदिक लोगों के द्वारा व्रात्यधर्म अथवा अहिंसा धर्म के रूप में, उपनिषदों के समय में अर्हत्धर्म अथवा आत्मधर्म के रूप में, बुद्ध के समय में निगन्थ धर्म के रूप में, भारत-मित्र और इन्डोसिथियान काल में श्रमणधर्म के रूप में, तथाकथित हिन्दुकाल में जैनधर्म, स्याद्वाद मत अथवा अनेकान्त मत के रूप में, भक्ति आन्दोलन के दिनों में विशेषरूप से डेक्कन में भव्य धर्म के रूप में, राजपुताना में श्रावक धर्म के रूप में, पंजाब में भावदास के धर्म के रूप में और अन्य रूप से भी कहलाता था। सभ्य लोगों की प्राचीनतम और विशुद्धरूप से देशी धार्मिक व्यवस्था होने के अलावा भी, यह एक मात्र धर्म है, जो चमत्कारिक रूप से इतने लम्बे समय तक प्रचलित रहा और वर्तमान समय तक अपनी अखण्डता को सुरक्षित रखा। अपने प्रारम्भ से ही, यह सम्पर्क में आनेवाले सभी धार्मिक व्यवस्थाओं पर क्रिया और प्रतिक्रिया करता रहा है और मानव चिन्तन एवं संस्कृति को प्रभावित करता रहा है। सभी संस्कृतियों के क्षेत्रों में भी इसका सहयोग मामूली अथवा निम्न स्तरीय नहीं है। इसके पास कुलीनतम और अधिक व्यवहार योग्य शान्ति और अच्छाई का विश्वभाईचारे का और जबरदस्त सुख और खुशी का सन्देश, न केवल अपनी जन्मस्थली के लिए बल्कि विस्तृत विश्व के लिए, न केवल एक व्यक्ति के लिए बल्कि सम्पूर्ण मानवजाति के लिए है। डॉ. नाग ने कहा है, "जैनधर्म किसी एक निश्चित जाति अथवा वर्ग का धर्म नहीं है। लेकिन यह सकल जीवमात्र का धर्म है। यह अन्तर्राष्ट्रीय और सार्वभौमिक है।" आदरणीय ए. जे. डुबोईस के शब्दों में, “हाँ! सम्पूर्ण मानवजाति का प्राचीनतम विश्वास अर्थात् उस (जिन) का धर्म ही इस पृथ्वी पर एक मात्र सच्चा है।" जिनमत की महिमा हो!!! 51
SR No.009248
Book TitleJain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotiprasad Jain
PublisherDharmoday Sahitya Prakashan
Publication Year2011
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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