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राजवंशीय मिस्र का धर्म भी जैनधर्म का एकदम सजातीय दिखाई देता है। वास्तव में फोरलॉन्ग के शब्दों में, “जैनधर्म के प्रारम्भ को खोजना असम्भव है।" जैनों के अनुसार उनका धर्म अनादिकालीन है, यह ऋषभ से पहले भी अस्तित्व में था और ऋषभ का काल जो वे देते हैं, भी गणना से परे है।
लेकिन वैज्ञानिक इतिहास के कठोर तथ्यों पर वापस आने पर भूगर्भशास्त्रियों, मानवविज्ञानी भूगोलशास्त्रियों और प्राक् इतिहासविदों के अनुसार आदिकालीन हिमयुग का अन्तिम काल लगभग ई. पू. आठ से दस हजार वर्षों में समाप्त हुआ और इसके साथ ही हिमयुगोत्तर का प्रारम्भ हुआ। यह वही समय है, जो क्वार्टनरी युग के नवपाषाणकाल के समापन समय के लिए भी निर्धारित है। यह इस समय के भी निकट है, जब तथाकथित आर्य लोगों का अपने उत्तरध्रुवीय घर से बाहर निकलना शुरू हुआ कहा जाता है। इस समय के ठीक बाद मुख्यरूप से भारत में ताम्रपाषाण युग प्रारम्भ होने को था, जो प्रथम सभ्यता की शुरूआत के लिए चिह्नित है, जैसा कि हम आज उसे समझते हैं। एक रोचक प्रमाण का अंश उत्सुकतापूर्वक भगवान् ऋषभ को ठीक इस समय के आस-पास निर्धारित करता है। एकान्तप्रिय राजदूत मैगस्थनीज, जो कुछ समय के लिए पाटलीपुत्र में रहे, सर्वसम्मतरूप से जैन साधु के रूप में अब स्वीकृत सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में, लगभग ई.पू. 305 में लिपिबद्ध करते हैं कि उस समय की प्रचलित देशी संस्कृति भारतीय इतिहास की शुरूआत का काल उस समय से 6462 वर्ष पूर्व से निर्धारित करती थी, उसके अनुसार जब महान् भारतीय डायोनिसस और उसका पुत्र महान् हर्कुलस रहता था। वह इस डायोनिसस को मेरु पर्वत और कैलाश (हेमोडोस) के साथ भी जोड़ते हैं, विभिन्न कला और शिल्प के आविष्कार और खोज, नगरों का निर्माण, राज्यों की स्थापना और
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