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जैनधर्म द्रविड़ लोगों का धर्म है, जो कि भारत के प्राक् आर्य मूल निवासी थे। आर्य अपने स्वयं के पूजा-पाठ और पशुबलि पर
आधारित विचारों के साथ आए। भगवान् महावीर के समय में पुनः प्रचलन को प्राप्त महत्त्व क्रान्ति की उस भावना का एक संकेत मात्र है, जो इस देश के जैनों के विशाल समूहों में इस नये पन्थ और अभ्यासों के प्रति आई, जो कि जैनों के द्वारा मान्य सिद्धान्तों के प्रतिकूल थे।"
__ भारत के प्राचीनतम गूढवादी चिह्न जैसे स्वस्तिक, त्रिदण्ड (अथवा रत्नत्रय का प्रतीक त्रिशूल), धर्मचक्र (न्याय का चक्र और समय चक्र), नन्द्यावर्त और वर्द्धमानक (अथवा नान्दीपद), वृक्ष, स्तूप, अर्द्धचन्द्र, कमल, पशु जैसे बैल, हाथी, सिंह, केकड़ा, सर्प और कई अन्य प्राचीनतम समयों से ब्राह्मणधर्म और बौद्धधर्म के द्वारा गोद लिए जाने से भी पूर्व और प्रतीक बनाने का प्रचलन होने से भी पूर्व, जैनों के द्वारा साधारणरूप से उपयोग में लाये हुए पाये जाते हैं। और कुछ नवपाषाणकालीन गुफाओं में जैसे कि रायगढ़ राज्य के सिंगनपुर में, जो इन प्राचीन कालों में जैनधर्म के प्रभाव के सुस्पष्ट चिह्नों को धारण करता है, दसों हजार वर्ष प्राचीन कुछ प्रागैतिहासिक चित्रकारियाँ खोजी गई हैं। भारत में पुरापाषाणकालीन और नवपाषाणकालीन लोगों के धार्मिक विचार तक, जो कुछ थोड़ा उनके बारे में ज्ञात है, जैनधर्म के मूलभूत स्वरूप से निकट की समानता रखते हैं। जैसे कि सर्वचेतनावाद, पुनर्जन्म, आत्मा का अस्तित्व और अनन्त स्वभाव, कर्म के जैन सिद्धान्त के समरूप कारण और कार्य का आध्यात्मिक असाधारण तथ्य और कई अन्य। यह दिखाने के लिए भी पर्याप्त प्रमाण हैं कि हिंसारहित केवल शाकाहार पर आश्रित अहिंसक लोग, मांस खानेवाले हिंसक स्वभाववालों के साथ समानरूप से हमेशा मौजूद थे। लाखों वर्ष पुराना माना जानेवाला बहुत प्राचीन प्राक्
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