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शताब्दी ई. पू. में चौबीसवें और अन्तिम तीर्थङ्कर अर्थात् 598-526 ई.पू. के महावीर के द्वारा कठोरता से लागू किया गया। यह संन्यासियों का आदेश ब्राह्मणधर्म और बौद्धधर्म में सम्पूर्ण दूरवर्ती बाकट्रीआ और डाकीआ (?) तक जारी रहा, जैसा कि हमारे अध्ययन ढ्ढ और "सेकरेड बुक्स ऑफ ईस्ट" अंक 22 और 45 में देखा जा सकता है। आगे वे कहते हैं, “जैसा कि पहले अनुमान किया गया था कि बौद्धधर्म की शाखा होने के बजाय जैनधर्म 3000 ई.पू. तक पीछे फैलता हुआ दिखाया गया है। उत्तरी भारत में कठोर जातियों की प्रकृति पूजा के साथ-साथ यह उन्नति करता हुआ पाया गया है।”
एस. एन. गोखले के शब्दों में, “प्राक् आर्यकाल से चले आ रहे दर्शन जैनधर्म का केन्द्रबिन्दु अहिंसा है।” डॉ. कालीदास नाग कहते हैं, "इतिहास को जानने की शपथ लेनेवालों में से भी कोई नहीं जानता है कि बुद्ध से लाखों और करोड़ों वर्ष पूर्व, न केवल एक अथवा दो बल्कि कई जैन तीर्थङ्करों ने अहिंसा की शिक्षा का उपदेश दिया था। जैनधर्म बहुत प्राचीन धर्म है और इसने भारतीय संस्कृति को बहुत कुछ प्रदान किया है ।" डॉ. जैकोबी भी इस मतवाले थे कि जैनधर्म भारत के प्रारम्भिक दर्शन से सम्बन्धित था। भारतीयों के द्वारा आण्विक सिद्धान्त के विकास पर बोलते हुए एक अन्य विख्यात विद्वान् कहते हैं, “जैसा कि उपनिषदों में संरक्षित है, ब्राह्मणों की प्राचीनतम दार्शनिक परिकल्पना में हम आण्विक सिद्धान्त का लेश भी खोज नहीं पाते हैं, और इसलिए ही उपनिषदों की शिक्षाओं की व्यवस्थित रूप से व्याख्या करने का दावा करनेवाले वेदान्त सूत्र में इसका खण्डन किया गया है। सांख्य और योग दर्शन में भी इस नहीं स्वीकारा है, जो कि परम्परागत होने का अगला दावा करते हैं अर्थात् वेदों से अच्छा सम्बन्ध बनाये हुए हैं, क्योंकि वेदान्त सूत्र तक उन्हें स्मृति इस शीर्षक की अनुमति देता है। लेकिन
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