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________________ स्पष्ट किया है कि जैन हिन्दु मतान्तर नहीं है, लेकिन जैनधर्म का मूल और इतिहास है, जो हिन्दु नियम और प्रथा के प्रसिद्ध अधिकृत स्मृति और टीकाओं तक सुदूर पूर्वकाल का है। वास्तव में जैन तीर्थङ्करों में अन्तिम महावीर बुद्ध के समकालीन थे और लगभग 527 ई. पूर्व में दिवङ्गत हुए (मोक्ष प्राप्त किया)। जैनधर्म कई पूर्व तीर्थङ्करों का उल्लेख करता है और इसमें कोई संदेह नहीं कि जैनधर्म ईसापूर्व कई शताब्दियों से एक पृथक् धर्म की तरह फल-फूल रहा था। वास्तव में जैनधर्म वेदों की प्रामाणिकता को अस्वीकार करता है, जिससे हिन्दुधर्म की आधारशिला बनी है और हिन्दु जिसे आवश्यक मानते हैं, उन कुछ अनुष्ठानों के महत्त्व को नकारता है।" बॉम्बे हाईकोर्ट के न्यायाधीश श्री रंगनेकर कहते हैं, “यह सत्य है कि जैन वेदों के शास्त्रीय चरित्र को अस्वीकार करते हैं और अंतिम संस्कार अनुष्ठान, श्राद्ध सम्पादन और दिवङ्गत आत्मा की मुक्ति के लिए भोग चढ़ाने से सम्बन्धित ब्राह्मण सिद्धान्त को नामंजूर करते हैं। उनमें ऐसी कोई मान्यता नहीं है कि जातक अथवा दत्तक पुत्र के द्वारा पिता को आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होता है। ब्राह्मण हिन्दुओं के मृतकों के प्रति व्यवहार में से मृतशरीर को जलाने अथवा दफनाने के बाद सभी अन्तिम संस्कारों को छोड़ देने से भी वे भिन्न हैं। अब यह सत्य है, जैसा कि बाद के ऐतिहासिक शोधों ने प्रमाणित किया कि ब्राह्मणवाद के अस्तित्व में आने से अथवा हिन्दुत्व में परिवर्तित होने से बहुत पहले जैनधर्म इस देश में चारों ओर फैला हुआ था। यह भी सत्य है कि देश में बहुमत बनानेवाले हिन्दुओं के साथ दीर्घकालीन साहचर्य होने के कारण ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धित और हिन्दुओं के द्वारा कठोरता से पाले जानेवाले कई रिवाज और धार्मिक अनुष्ठान तक जैनों ने ग्रहण किये।" अन्त में स्वाधीन भारत के प्रथम प्रधान पं. जवाहरलाल नेहरु 33
SR No.009248
Book TitleJain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotiprasad Jain
PublisherDharmoday Sahitya Prakashan
Publication Year2011
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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