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________________ अर्थात् ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी का। इसके अलावा जैन संस्कृत पद्मपुराण (7वीं शताब्दी), अपभ्रंश की स्वयंभू रामायण (8वीं शताब्दी), मुनिसुव्रत काव्य और पुराणों ने ब्राह्मण पुराणों और अपेक्षाकृत बहुत बाद के देशी भाषा के रामायणों की अपेक्षा इस कथा को संरक्षित और लोकप्रिय बनाने में कम योगदान नहीं दिया है। लेकिन ब्राह्मण रामायण से जैन संस्करण जिस बात से भिन्न है, वह जैनधर्म की स्थिति पर बहुत महत्त्वपूर्ण प्रकाश डालता है। जैन संस्करणों के अनुसार रावण और अनेक राक्षस विद्याधरों की जाति के अत्यधिक सभ्य लोग हैं और जिन के महान् भक्त हैं। यहाँ हिन्दु महाकाव्यों से भिन्न वे डरावनी शक्ल, दुष्ट स्वभाव और अधार्मिक दैत्य, राक्षस, पिशाच या असुरों की तरह प्रदर्शित नहीं हुए हैं, बल्कि निश्चितरूप से वैदिक साधुओं के बलिदानी भक्तों के विरोधियों के रूप में वर्णित हुए हैं। इसलिए ही डॉ. भट्टाचार्य ने पाया कि “इन दोनों वृत्तान्तों पर एक साथ विचार करने पर वर्तमान समय के कुछ विद्वान् उग्रता से आग्रह करते हैं कि वैदिक लोगों ने राक्षसों को बुरा बताया, क्योंकि वे जैन थे और कहते हैं कि वाल्मिकी की रामायण में राक्षसों का वर्णन स्पष्टरूप से दर्शाता है कि वे जैनों से भिन्न नहीं हो सकते थे और रामायण के लेखकों ने केवल धार्मिक हठधर्मिता के कारण उन्हें डरावने स्वरूप में प्रस्तुत किया।" एफ. ई. पारगिटर भी जोर देकर कहते हैं कि “हिन्दुओं के द्वारा जैनों के साथ असुरों और दैत्यों (द्वेष के शब्द) की तरह बर्ताव किया जाता था।" एडिकन्स कहते हैं, “रोहड भी जैनों को असुरों और राक्षसों के वंशज होने की कल्पना करते थे।" सी. एफ. ओल्घम इस मान्यता के हैं कि “बौद्ध और जैन दोनों व्यवस्थाएँ सूर्य और सर्प से निकटता से जुड़ी हैं और उनने अपने प्रमुख सहायक सूर्यवंश से पाए, जो ब्राह्मण प्रभाव में न के बराबर आये थे। पुराण वर्णन है कि जैन असुरों 24
SR No.009248
Book TitleJain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotiprasad Jain
PublisherDharmoday Sahitya Prakashan
Publication Year2011
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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