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________________ 7वीं शताब्दी में मध्य एशिया के इस शहर (अर्थात् किआपिसि) में ह्युन ट्सांग ने निगंथों अथवा जैनों की मौजूदगी पर ध्यान दिया था और उससे लगभग हजार वर्ष पहले भारत की उत्तर पश्चिम सीमाओं के पास यूनानी भी इसी प्रकार उनसे मिले थे। अतः तार्किकरूप से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि महावीर से भी पूर्व कासपिया, अमान, समरखंड के शहरों, बाल्ख इत्यादि में कभी जैनधर्म प्रचलित था। यूनानी इतिहास के पिता, हेरोडोट्स ने ईसा पूर्व की 5वीं शताब्दी में एक भारतीय धार्मिक सम्प्रदाय के बारे में लिखा, जो कुछ नहीं है, जिसमें जीवन था और जो ज्वार जैसे धान्य खाकर जीवन निर्वाह करते थे। महावीर और बुद्ध के समकालीन यूनानी दार्शनिक पाईथागोरस (ईसा पूर्व 580 में जन्मा) अध्यात्म विद्या के सिद्धान्त, आत्माओं के पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धान्त को मानते थे, जीवन के विनाश और मांस खाने से दूर रहते थे और कुछ शाकों को निषिद्ध मानते थे। वह अपने पूर्व जन्मों को स्मरण करने की शक्ति रखने का दावा भी करता था। अनाथ दार्शनिक नाम से प्रसिद्ध एशिया माईनर के ये प्रारम्भिक एकाकी दार्शनिक आत्मा की तुलना में शरीर की हीनता को भी मानते थे। अब ये सभी मान्यताएँ विचित्र और पृथक् सूचक रूप से जैनों की हैं और इनका बौद्धधर्म अथवा ब्राह्मणधर्मों से कुछ भी समानता नहीं है। क्योंकि वे मान्यताएँ इन दूर के क्षेत्रों में पहले से ही ऐसे समय में स्वीकृत थीं, जब महावीर और बुद्ध ने उपदेश देना शुरू ही किया था और क्योंकि इसमें कोई संदेह भी नहीं है कि ये विचार भारत से ही वहाँ पहुँचे। अतः यहाँ कोई संदेह शेष नहीं है कि उन्होंने किसी प्रारम्भिक का न सही, कम से कम पार्श्व और उनके अनुयायियों का प्रचार निश्चित रूप से स्वीकार कर लिया था। वास्तव में जैसा डॉ. राधाकृष्णन कहते हैं, “इसमें संदेह नहीं है कि वर्द्धमान और पार्श्वनाथ के पूर्व भी जैनधर्म प्रचलित था।"
SR No.009248
Book TitleJain Dharm Prachintam Jivit Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotiprasad Jain
PublisherDharmoday Sahitya Prakashan
Publication Year2011
Total Pages51
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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