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उमास्वामि श्रावकाचार-परीक्षा
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मूत्र में 'सल्लेखना' को व्रतांसे अलग वर्णन किया है । इस लिये सल्लेखनाको शामिल करके यह तेरहकी संख्या पूरी नहीं की जासकती ।
व्रतों प्रतीचार भी तत्त्वार्थसूत्रमें ६० ही वर्णन किये हैं । यदि सल्लेखनाको व्रतोंमें मानकर उसके पांच प्रतीचार भी शामिल कर लिये जावें तब भी ६५ (१३५ = ६५) ही प्रतीचार होंगे । परन्तु यहाँपर व्रतोंके
चारोंकी संख्या ७० लिखी है, यह एक आश्चर्य की बात है । सूत्रकार भगवान् उमास्वामीके वचन इस प्रकार परस्पर या पूर्वापर विरोधको लिये हुए नहीं हो सकते । इसी प्रकारका परस्परविरुद्ध कथन और भी कई स्थानोंपर पाया जाता है। एक स्थानपर शिक्षाव्रतों का वर्णन करते हुए लिखा है :
"स्वशक्त्या क्रियते यत्र संख्या भोगोपभोगयोः । भोगोपभोगसंख्याख्यं तत्तृतीयं गुणवतम् ॥ ४३० ॥”
इस पद्यसे यह साफ प्रकट होता है कि ग्रन्थकर्ताने, तत्त्वार्थसूत्र के विरुद्ध, भोगोपभोगपरिमाणव्रतको शिक्षाव्रतके स्थानमें तीसरा गुणव्रत वर्णन किया है ! परन्तु इससे पहले खुद ग्रन्थकर्त्ताने 'अनर्थदण्डविरति ' को ही तीसरा गुणत वर्णन किया है। और वहाँ दिग्विरति, देशविरति तथा नर्थदण्डविरति, ऐसे तीनों गुणव्रतोंका कथन किया है। गुणव्रतोंका कथन समाप्त करनेके बाद ग्रन्थकार इससे पहले ग्राद्यके दो शिक्षाव्रत ( सामायिक, प्रोषधोपवास) का स्वरूप भी दे चुके हैं । अब यह तीसरे शिक्षावतके स्वरूप कथनका नम्बर था, जिसको आप 'गुणवत' लिख गये ! कई चायने भोगोपभोगपरिमाण व्रतको गुणव्रतांमें माना है । मालूम होता है कि यह पद्य किसी ऐसे ही ग्रन्थसे लिया गया है, जिसमें भोगोपभोगपरिमाण व्रतको तीसरा गुणव्रत वर्णन किया है और ग्रन्थकार महाशय इसमें शिक्षाव्रतका परिवर्तन करना भूल गये अथवा उन्हें इस बातका स्मरण नहीं रहा कि हम शिक्षाव्रतका वर्णन कर रहे हैं। योगशास्त्रमें भोगोपभोगपरिमाणव्रतको दूसरा गुणत्रत वर्णन किया है और उसक स्वरूप इस प्रकार लिखा है :