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________________ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला मांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन्न वा मांसम। यद्वनिम्बो वृक्षो वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः ।।२७६।। शुद्धं दुग्धं न गोर्मासं वस्तुवैचित्र्यमीदृशं । विषत्रं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः ॥२७॥ तच्छाक्यसांख्यचार्वाकवेदवैद्यकपर्दिनाम । मतं विहाय हातव्यं मांसं श्रेयार्थिभिः सदा ॥२४॥" ये सब पद्य श्रीसोमदेवसूरिकृत यशस्तिलकसे उठाकर रक्ग्वे हुए मालूम होते हैं । इन पद्योंमें पहले तीन पद्य यशस्तिलकके छटे आश्वासके और शेष पद्य सातवें आश्वासके हैं । ग-योगशास्त्र (श्वेताम्बरीय ग्रन्थ) से "सरागोऽपि हि देवश्चेद्गुरुरब्रह्मचार्यपि । कृपाहीनोऽपि धर्मश्चत्कष्टं नष्टं हहा जगत् ॥ १६ ॥ हिसा विघ्राय जायेत विघ्नशांत्यै कृतापि हि। कुलाचारधियाप्येषा कृता कुलविनाशिनी ॥ ३३६ ॥ मांस भक्षयितामुत्र यस्य मांसमिहाम्यहम । एतन्मांसस्य मांसत्वे निरुक्तिं मनुर ब्रवीत् ॥ २६५ ॥ उलूककाकमार्जारगृध्रशंवरशूकराः । अहिवृश्चिकगोधाश्च जायंते रात्रिभोजनात् ॥ ३२६॥" ये चारों पद्य श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचित 'योगशास्त्र से लिये हुए मालूम होते हैं। इनमेंसे शुरूके दो पद्य योगशास्त्रके दूसरे प्रकाशमें (अध्याय ) क्रमशः नं० १४, २६ पर और शेष दोनों पद्य तीसरे प्रकाशमें नं० २६ और ६७ पर दर्ज हैं । तीसरे पद्यके पहले तीन चरणों में मनुस्मृतिक वचनका उल्लेख है ।
SR No.009242
Book TitleUmaswami Shravakachar Pariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1944
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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