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प्रस्तावना
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"कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने ग्रन्थपर तो अपना नाम दिया है परन्तु उसमें भ० महावीर आदिके मुखसे इस प्रकारके वाक्य कहलाये हैं जो जैन धर्मके विरुद्ध, क्षुद्रतापूर्ण और दलबन्दीके आक्षेपोंसे भरे हैं। इसी श्रेणीके ग्रन्थोंमें 'सूर्यप्रकाश' भी एक है, जिसकी अधार्मिकता और अनौचित्यका इस पुस्तकमें मुख्तार साहबने बड़ी अच्छी तरहसे प्रदर्शन किया है । इम प्रकारके जाली ग्रन्थोंका भण्डाफोड़ करनेके कार्यमें मुख्तार साहब मिद्धहस्त हैं। आपने भद्रबाहु-संहिता, कुन्दकुन्द-श्रावकाचार, उमाम्वामिश्रावकाचार, जिनसेन-त्रिवर्णाचार आदि जाली ग्रन्थोंकी परीक्षा करके शास्त्र-मूढताको हटानका सफलता पूर्ण और प्रशंसनीय उद्योग किया है।"
"संक्षेपमें इतना ही कहा जासकता है कि जाली ग्रन्थों में जितनी धूर्तता और क्षुद्रता होसकती है वह सब इस (सूर्यप्रकाश) में है. और उसकी परीक्षाके विषयम तो मुख्तार माहब का नाम ही काफी है। यह खेद और लज्जाकी बात है कि सूर्यप्रकाशसरीखे भ्रष्ट ग्रन्थोंके प्रचारक ऐसे लोग हैं जिन्हें कि बहुतसे लोग भ्रमवश विद्वान और मुनि समझते हैं । ..... ... 'आशा है इस परीक्षामन्थको पढकर बहुतसे पाठकोंका विवेक जाग्रत होगा।" ।
इस ग्रन्थपरीक्षा (चतुर्थ भाग) के माथमें कुछ विद्वानोंकी मम्मतियाँ भी लगी हैं, जिनमें से न्यायालंकार पं० वशीधरजी 'सिद्धान्तमहोदधि', इन्दौरकी सम्मति इस प्रकार है:
"अापकी जो अति पैनी बुद्धि सचमुच सूर्य के प्रकाश का भी विश्लेपण कर उसके अन्तर्वति तत्त्वोंक निरूपण करने में कुशल है उसके द्वारा यदि नामतः सूर्यप्रकाशकी समीक्षा की गई है तो उसमें का कोई भी तत्त्व गुह्य नहीं रह सकता है। अनुवादकके