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________________ १२ प्रकीर्णक-पुस्तकमाला समाजको अपने पवित्र साहित्यकी रक्षा के लिये सतर्कताके साथ सावधान हो जाना चाहिये और ऐसे दूषित अन्थोंका जोरोंके साथ बहिष्कार करना चाहिये, तभी हम अपने पवित्र धर्म और पूज्य चाय की कीर्तिको सुरक्षित रख सकेंगे ।" इस ग्रन्थपरीक्षा (चतुर्थ भाग ) के साथमें पं० दीपचन्दजो वर्णी 'मेरे विचार' लगे हुए हैं, जिनमें परीक्षाका अभिनन्दन करते 'हुए इस ग्रन्थको सोमसेन - त्रिवर्णाचारसे भी अधिक दूषित, शास्त्रविरुद्ध तथा महा आपत्तिके योग्य ठहराया है। साथ ही, साहित्यरत्न पं० दरबारीलालजी न्यायतीर्थकी महत्वपूर्ण 'भूमिका' ( ७ नवम्बर सन १६३३) भी लगी हुई है। उस समय भट्टारकानुयायी कुछ पण्डितोंको जब ग्रन्थपरीक्षाओं के विरोध में कुछ भी युक्तियुक्त कहने के लिये न रहा तब उन्होंने अन्तिम हथियार के रूप में यह कहना शुरू किया था कि १. " बस ! परीक्षा मत करो। परीक्षा करना पाप है। सरस्वतीकी परीक्षा करना माताके सतीत्वकी परीक्षा करनेके समान निन्द्य है । जब हम माँ बापकी परीक्षा नहीं करते तब हमें सरस्वती की परीक्षा करने का क्या हक है ? दुनियां के सैकड़ों कार्य बिना परीक्षा के चलते हैं ।" २. " जिन शास्त्रों से हमने अपनी उन्नति की उनकी परीक्षा करना तो कृतघ्नता है ।" ३. “हम शास्त्रकार से अधिक बुद्धिमान हों तो परीक्षा कर सकते हैं ।" भूमिका में इन सब बातों का खूब युक्ति-पुरस्सर उत्तर दिया गया है और उन्हें सब प्रकार से निःसार तथा निर्लज्जता मूलक ठहराया गया है । साथ ही, ग्रन्थ और उसकी परीक्षाके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा है उसके कुछ वाक्य इस प्रकार हैं
SR No.009242
Book TitleUmaswami Shravakachar Pariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1944
Total Pages44
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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