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अनेकान्त-रस-लहरी
____ 'इसमें सोचनेकी क्या बात है ? उसका कथन भी विरोधदोषसे दुषित है; क्योंकि जो अपेक्षावाद अथवा स्याद्वाद-न्यायको नहीं मानता उसका उभय-एकान्तको लिये हुए कथन विरोध-दोषसे रहित हो ही नहीं सकता-अपेक्षावाद अथवा 'स्यात्' शब्द या स्यात् शब्दके आशयको लिये हुए 'कचित' (एक प्रकारसे) जैसे शब्दोंका साथमें प्रयोग ही कथनके विरोध-दोषको मिटाने वाला है। कोई भी वस्त सर्वथा छोटी या बड़ी नहीं हुआ करती' यह बात तुम अभी म्वयं स्वीकार कर चुके हो और वह ठीक है; क्योंकि कोई भी वस्त स्वतंत्ररूपसे अथवा स्वभावसे सर्वथा छोटी या बड़ी नहीं है-किसी भी वस्तुमें छोटेपन या बड़ेपनका व्यवहार दूसरेके आश्रय अथवा पर-निमित्तसे ही होता हैं और इसलिये उस आश्रय अथवा निमित्तकी अपेक्षाके विना वह नहीं बन सकता। अतः अपेक्षासे उपेक्षा धारण करने वालोंके ऐसे कथनमें सदा ही विरोध बना रहता है। वे 'ही' की जगह 'भी' का भी प्रयोग करदें तो कोई अन्तर नहीं पड़ता। प्रत्युत इसके, जो स्याद्वादन्यायके अनुयायी हैं-एक अपेक्षासे छोटा और दूसरी अपेक्षासे बड़ा मानते है-वे साथमें यदि 'ही' शब्दका भी प्रयोग करते हैं तो उससे कोई बाधा नहीं आती-विरोधको जरा भी अवकाश नहीं मिलता; जैसे 'तीन-इंची लाइन पांच-इंची लाइनकी अपेक्षा छोटी ही है और एक इंचो लाइनकी अपेक्षा बड़ी ही है' इस कहने में विरोधकी कोई बात नहीं है। विरोध वहीं पाता है जहां छोटापन और बड़ापन जैसे सापेक्ष धर्मों अथवा गुणोंको निरपेक्षरूपसे कथन किया जाता है । मैं समझता हूँ अब तुम इस विरोध-अविरोधके तत्वको भी अच्छी तरहसे समझ गये होगे?'
विद्यार्थी-हाँ, आपने खूब समझा दिया है और मैं अच्छो