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धवला उद्धरण
48 जीवों का मरण होता है और जहाँ पर एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ पर अनन्त जीवों का उत्पाद होता है।।146।।
एक निगोद शरीर में जीवराशि एय-णिगोद-सरीरे जीवा दव्व-प्पमाणदो दिट्ठा। सिद्धे अणंत-गुणा सव्वेण वितीद-कालेण।।147।।
द्रव्य-प्रमाण की अपेक्षा सिद्धराशि और संपूर्ण अतीत काल से अनन्तगुणे जीव एक निगोद-शरीर में देखे गये हैं।।147।।
नित्य निगोद अत्थि अणंता जीवा जेहि ण पत्तो तसाण परिणामो। भाव-कलंकइपउरा णिगोद-वासं ण मुंचंति।।148।।
नित्य निगोद में ऐसे अनन्तानन्त जीव हैं जिन्होंने अभी तक त्रस पर्याय नहीं पाई है और जो भाव अर्थात् निगोद पर्याय के योग्य कषाय के उदय से उत्पन्न हुई दुर्लेश्यारूप परिणामों से अत्यन्त अभिभूत रहते हैं, इसलिये निगोद-वास को कभी नहीं छोड़ते।।148।।
पृथिवीकायिक जीव पुढवी य सक्करा वालुअ उवले सिलादि छत्तीसा। पुढवीमया हु जीवा णिहिट्ठा जिणवरिंदेहि।।149।।
जिनेन्द्र भगवान् ने पृथिवी, शर्करा, बालुका, उपल और शिला आदि के भेद से पृथिवीरूप छत्तीस प्रकार के जीव कहे हैं।।149।।
जलकायिक जीव ओसा हिमो य घूमरि हरदणु सुद्धोदवो घणोदो य। एदे दु आउकाया जीवा जिण-सासणुद्दिट्ठा।।150।।