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________________ धवला उद्धरण 46 स्वेदज, सम्मूर्छिम, उद्भिज्ज, औपपादिक, रसज, पोत, अण्डज और जरायुज ये सब पञ्चेन्द्रिय जीव जानना चाहिए।।139।। सिद्धों के इन्द्रियव्यापार नहीं ण वि इंदिय-करण-जुदा अवग्गहादीहि गाहया अत्थे। णेव य इंदिय-सोक्खा अणिदियाणंत-णाण-सुहा।।140।। वे सिद्ध जीव इन्द्रियों के व्यापार से युक्त नहीं हैं और अवग्रहादिक क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा पदार्थों को ग्रहण नहीं करते हैं। उनके इन्द्रिय-सुख भी नहीं है, क्योंकि उनका अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख अनिन्द्रिय है।।140॥ प्राण का स्वरूप बाहिर-पाणेहि जहा तहेव अब्भतरेहि पाणेहि। जीवंति जेहि जवा पाणा ते होंति बोद्धवां।।141।। जिस प्रकार नेत्रों का खोलना, बन्द करना, वचन प्रवृत्ति आदि बाह्य प्राणों से जीव जीते हैं, उसी प्रकार जिन अभ्यन्तर इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशमादि के द्वारा जीव में जीवितपने का व्यवहार हो उनको प्राण कहते हैं ।।141।। एकेन्द्रियादि के इन्द्रियाँ एइंदियस फुसणं एक्कं चि य होइ सेस-जीवाणं। होंति कम-वड्ढियाइं जिब्भा-घाणक्खि-सोत्तई।।142।। एकेन्द्रिय जीव के एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है और शेष जीवों के क्रम से बढ़ती हुई जिह्वा, घ्राण, अक्षि और श्रोत्र इन्द्रियाँ होती हैं।।142।।
SR No.009235
Book TitleDhavala Uddharan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year2016
Total Pages302
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size524 KB
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