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धवला पुस्तक 1 जाता है, इसे सूची कर्म कहते हैं। अनन्तर उस डोरा से लकड़ी के ऊपर चिन्ह कर दिया जाता है, इसे मुद्रा कर्म कहते हैं। इसके बाद लकड़ी के निरुपयोगी भाग को छाँटकर निकाल दिया जाता है, इसे प्रतिघ या प्रतिघात कर्म कहते हैं। फिर उस लकड़ी के काम के लिये उपयोगी जितने भागों की आवश्यकता होती है, उतने भाग कर लिये जाते हैं इसे संभवदल कर्म कहते हैं और अन्त में वस्तु तैयार करके ऊपर ब्रश आदि से पालिश कर दिया जाता है, यही वर्त्तिका कर्म है। इस तरह इन पाँच कर्मों से जैसे विवक्षित वस्तु तैयार हो जाती है, उसी प्रकार अनुयोग शब्द से भी आगमानुकूल संपूर्ण अर्थ का ग्रहण होता है। नियोग, भाषा, विभाषा और वर्तिका ये चारों अनुयोग शब्द के द्वारा प्रगट होने वाले अर्थको ही उत्तरोत्तर विशद करते हैं। अतएव वे अनुयोग के ही पर्यायवाची नाम हैं।।101।।
सत्संख्या आदि की प्ररूपणा अत्थित्तं पुण संतं अत्थित्तस्स य तहेव परिमाणं। पच्चप्पणणं खेत्तं अदीद-पदुप्पण्णणं फसणं||102।। कालो ट्ठिदि-अवघाणं अंतरविरहो य सुण्ण-कालो य। भावो खलू परिणमो स-णाम-सिद्ध ख अप्पबहं।।103।।
अस्तित्व का प्रतिपादन करने वाली प्ररूपणा को सत्प्ररूपणा कहते हैं। जिन पदार्थों के अस्तित्व ज्ञान हो गया है. ऐसे पदार्थों के परिमाण का कथन करने वाली संख्या प्ररूपणा है। वर्तमान क्षेत्र का वर्णन करने वाली क्षेत्र प्ररूपणा है। अतीत स्पर्श और वर्तमान स्पर्श का वर्णन करने वाली स्पर्शन प्ररूपणा है। जिससे पदार्थों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का निश्चय हो उसे काल प्ररूपणा कहते हैं। जिसमें विरहरूप शून्यकाल का कथन हो उसे अन्तर प्ररूपणा कहते हैं। जो पदार्थों के परिणामों का वर्णन करे वह भाव प्ररूपणा है अल्पबहुत्व प्ररूपणा अपने नाम से ही सिद्ध है।102-103।।