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धवला उद्धरण
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गुणस्थान का स्वरूप जेहिं दु लक्खिाजंते संभवेहि भावेहि। जीवा ते गुणसण्णा णिहट्ठा सव्वदरिसीहि।।104।।
दर्शन मोहनीय आदि कर्मों के उदय, उपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न हुए जिन परिणामों से युक्त जो जीव देखे जाते हैं, उन जीवों को सर्वज्ञदेव ने उसी गुणसंज्ञा वाला कहा है।।104।।
नयवाद जावदिया वयण-वहा तावदिया चे होंति णय-वादा। जावदिया णय-वादा तावदिया चे पर-समया।।105।। जितने भी वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद अर्थात् नय के भेद होते हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही परसमय (अनेकान्त बाह्यमत) होते हैं।।105।।
मिथ्यात्व प्रकृति के उदय का फल मिच्छत्तं वे यंतो जीवो विवरीय-दसणो होई। ण य धम्मं रोचेदि हु महुरं खु रसं जहा दरिदो।106।। मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से उत्पन्न होने वाले मिथ्यात्व भाव का अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धा वाला होता है। जिस प्रकार पित्तज्वर से युक्त जीव को मधुर रस अच्छा मालूम नहीं होता है, उसी प्रकार उसे यथार्थ धर्म अच्छा मालूम नहीं होता है।।106।।
मिथ्यात्व का स्वरूप एवं भेद तं मिच्छत्तं जमसद्दणं तच्चाणं होइ अत्थाणं। संसइदमभिग्गहियं अणभिग्गहिदं ति तं तिविहं।107।। जो मिथ्यात्व कर्म के उदय से तत्त्वार्थ के विषय में अश्रद्धान उत्पन्न