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धवला उद्धरण
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सत् का स्वरूप न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात्। व्येत्युदेति विशेषात्ते सहकत्रोदयादि सत्।।10।।
कोई भी वस्तु सामान्य स्वरूप से न उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है, क्योंकि इनमें सामान्य स्वरूप से स्पष्टतया अन्वय देखा जाता है, किन्तु वही विशेष स्वरूप को नष्ट भी होती है और उत्पन्न भी होती है। हे भगवन्! इस प्रकार आपके मत में एक ही वस्तु में उत्पादादि तीनों ही एक साथ रहते हैं। इन्हीं तीनों से युक्त वस्तु को सत् कहा जाता है।।10।।
भावेकान्ते पदार्थानामभावानापहवात्। सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम्।।11।।
अस्तित्व विषयक एकान्त पक्ष में अभावों का अपलाप होने से दूसरों के मत में पदार्थों के सर्वरूपता, अनादिता, अनन्तता और अस्वरूपता का प्रसंग आता है।।11।।
कार्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्य निऍवे। प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां ब्रजेत्।।12।।
प्रागभाव का अपलाप होने पर कार्यरूप द्रव्य के अनादि हो जाने का प्रसंग आता है तथा प्रध्वंसरूप धर्म का (प्रध्वंसाभाव का) अभाव होने पर वह अनन्तता (अविनश्वरता) को प्राप्त हो जावेगा।।12।।
सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे। अन्यत्रसमवाये न व्यपदिश्येत सर्वथा।।13।।
अन्यापोह (अन्योन्याभाव) का उल्लंघन होने पर विवक्षित कोई एक तत्त्व सब तत्त्वों स्वरूप हो जावेगा। अन्यत्र समवाय अर्थात् ज्ञानादि गुणविशेषों का अपने समवायी (आत्मादि) के व्यतिरिक्त दूसरे समवायों में समवाय होने पर अर्थात् अत्यन्ताभाव के अभाव में अभीष्ट स्वरूप