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धवला पुस्तक 15
249 पदार्थों के विनाश में जाति (उत्पत्ति) को ही कारण माना जाता है, परन्तु जो उत्पन्न होकर भी नष्ट नहीं होता है वह फिर पीछे आपके यहाँ किसके द्वारा नाश को प्राप्त होगा? नहीं हो सकेगा।।6।।
क्षणिक कान्तपक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यसम्भवः। प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न कार्यारम्भः कुतः फलम्।।7।।
क्षणिक एकान्त पक्ष में भी प्रत्यभिज्ञान आदि का अभाव होने से कार्य का आरम्भ नहीं हो सकता और जब कार्य का आरम्भ नहीं हो सकता है तब उसके अभाव में भला पुण्य एवं पाप रूप फल की सम्भावना कहाँ सेकी जा सकती है? तथा पण्य या पाप का अभाव होने पर जन्मान्तर रूप प्रेत्यभाव एवं बन्ध-मोक्षादि का भी सद्भाव नहीं रह सकता।।7।।
घटमालिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्।।8।।
घट, मुकुट और सुवर्ण सामान्य का अभिलाषी यह मनुष्य क्रमशः घट के नाश, मुकुट के उत्पाद और सुवर्ण सामान्य की स्थिति में शोक, प्रमोद एवं माध्यस्थ्य भाव को प्राप्त होता है। यह सहेतुक है, अकारण नहीं है।।8।।
पयोव्रतो न दध्याति न पयोऽत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम्।।9।।
'मैं केवल दूध को ग्रहण करूँगा' ऐसा नियम लेने वाला व्यक्ति दही को नहीं खाता है, मैं केवल दही खाऊँगा' ऐसा नियम रखने वाला व्यक्ति दूध को नहीं लेता है तथा 'मैं गोरस से भिन्न पदार्थको ग्रहण करूँगा ऐसा व्रत लेने वाला व्यक्ति दूध व दही दोनों को ही नहीं खाता है। इसीलिये वस्तु तत्त्व उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य इन तीनों स्वरूप है।।9।।