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________________ ७२] [प्रतिक्रमण-आवश्यक आदिक- कोई पण वखते चितवन नहि करवू, केम के ते माठां ध्यानोनुं फळ केवळ पाप ज छे... (६) सामायिकबतनुं स्वरूप रागद्वेषत्यागान्निखिलद्रव्येषु साम्यमवलम्ब्य । तत्त्वोपलब्धिमूलं बहुशः सामायिकं कार्यम् ॥१४८॥ अर्थ :-समस्त पदार्थो प्रत्ये राग--द्वेषनो त्याग करीने समभावने अंगीकार करी आत्मतत्त्वनी स्थिरताचें मूळ कारण अq सामायिक वारंवार करवू. (१०) पौषधव्रतर्नु स्वरूप मुक्तसमस्तारम्भः प्रोषधदिनपूर्ववासरस्याङ्के । उपवासं गृह्णीयान्ममत्वमपहाय देहादौ ॥१५२॥ श्रित्वा विविक्तवसतिं समस्तसावधयोगमपनीय । सर्वेन्द्रियार्थविरतः कायमनोवचनगुप्तिभिस्तिष्ठेत् ॥१५३॥ अर्थ :-समस्त आरंभथी मुक्त थई शरीरादिकमां आत्मबुद्धिने त्यागीने पौषधना दिवसना आगला दिवसना बपोरथी उपवास करवो अने पौषधनो दिवस अकान्त स्थानमा रही संपूर्ण सावद्ययोगने छोडी, सर्वे इन्द्रियोना विषयोथी विरक्त थई, त्रण गुप्तिमां स्थिर थई धर्मध्यानमां व्यतीत करवो. (११) भोग-उपभोगपरिमाणवतन स्वरूप भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य नान्यतो हिंसा । अधिगम्य वस्तुतत्त्वं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यौ ॥१६१॥ अर्थ :-श्रावकने भोग--उपभोगना निमित्तथी हिंसा थाय छे, माटे वस्तुना स्वरूपने जाणीने पोतानी शक्ति अनुसार भोग-उपभोगने छोडवा जोइओ.
SR No.009232
Book TitlePratikraman Aalochana Samayik Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Mumukshu Mahila Mandal
PublisherJain Mumukshu Mahila Mandal
Publication Year2002
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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