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________________ . [प्रतिक्रमण-आवश्यक जे सर्वसंगविमुक्त, ध्यावे आत्मने आत्मा वडे,-नहि कर्म के नोकर्म; चेतक चेततो अकत्वने, १८८. ते आत्म ध्यातो, ज्ञानदर्शनमय, अनन्यमयी खरे, बस अल्प काळे कर्मथी प्रविमुक्त आत्माने वरे. १८६. अर्थ :-आत्माने आत्मा वडे बे पुण्य-पापरूप शुभाशुभ-योगोथी रोकीने दर्शनज्ञानमां स्थित थयो थको अने अन्य (वस्तु)नी इच्छाथी विरम्यो थको, जे आत्मा, (इच्छारहित थवाथी) सर्व संगथी रहित थयो थको, (पोताना) आत्माने आत्मा वडे ध्यावे छे-कर्म अने नोकर्मने ध्यातो नथी, (पोते) 'चेतयिता (होवाथी) ओकत्वने ज चिंतवे छे-चेते छे-अनुभवे छे, ते (आत्मा) आत्माने ध्यातो, दर्शनज्ञानमय अने अनन्यमय थयो थको अल्प काळमां ज कर्मथी रहित आत्माने पामे छे. (६) निर्जरानुं स्वरूप संवरपूर्वक जे पूर्वना विकारी भावोने तथा पूर्वे बांधेला कर्मोने टाळे छे तेने निर्जरा कहे छे, ते बतावनाएं स्वरूप. उदयविवागो विविहो कम्माणं वण्णिदो जिणवरेहिं । ण दु ते मज्झ सहावा जाणगभावो दु अहमेक्को ॥१६८॥ कर्मो तणो जे विविध उदयविपाक जिनवर वर्णव्यो, ते मुज स्वभावो छे नहीं, हुं ओक ज्ञायकभाव छु. १६८. अर्थ :-कर्मोना उदयनो विपाक (फळ) जिनवरोले अनेक प्रकारनो वर्णव्यो छे ते मारा स्वभावो नथी; हुं तो ओक ज्ञायकभाव १. चेतयिता - चेतनार; देखनार-जाणनार. २. अनन्यमय = अन्यमय नहि अवो.
SR No.009232
Book TitlePratikraman Aalochana Samayik Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Mumukshu Mahila Mandal
PublisherJain Mumukshu Mahila Mandal
Publication Year2002
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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