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प्रतिक्रमण-आवश्यक ]
[४१. कर्मबंधथी विपरीत स्वभाववाळां अवां ज्ञान, दर्शन, समाधि, वैराग्य, भक्ति आदि साधन प्रत्यक्ष छे; जे साधनना बळे कर्मबंध शिथिल थाय छे, उपशम पामे छे, क्षीण थाय छे. माटे ते ज्ञान, दर्शन, संयमादि मोक्षपदना उपाय छे.
. (नमस्कार मंत्र बोली कायोत्सर्ग पूरो करवो.)
श्री ज्ञानीपुरुषोओ सम्यग्दर्शनना मुख्य निवासभूत कह्यां अवां आ छ पद अत्रे संक्षेपमा जणाव्यां छे. समीपमुक्तिगामी जीवने सहज विचारमा ते सप्रमाण थवा योग्य छे, परम निश्चयरूप जणावा योग्य छे, तेनो सर्व विभागे विस्तार थई तेना आत्मामां विवेक थवा योग्य छे. आ छ पद अत्यंत संदेहरहित छे अम परमपुरुषे निरूपण कर्यु छे. जे छ पदनो विवेक जीवने स्वस्वरूप समजवाने अर्थे कह्यो छे. अनादि स्वप्नदशाने लीधे उत्पन्न थयेलो अवो जीवनो अहंभाव, ममत्वभाव ते निवृत्त थवाने अर्थे आ छ पदनी ज्ञानीपुरुषोओ देशना प्रकाशी छे. ते स्वप्नदशाथी रहित मात्र पोतानुं स्वरूप छे ओम जो जीव परिणाम करे, तो सहजमात्रमा ते जागृत थई सम्यग्दर्शनने प्राप्त थाय; सम्यग्दर्शनने प्राप्त थई स्वस्वभावरूप मोक्षने पामे. कोई विनाशी, अशुद्ध अने अन्य ओवा भावने विषे तेने हर्ष, शोक, संयोग, उत्पन्न न थाय. ते विचारे स्वस्वरूपने विषे ज शुद्धपणुं, संपूर्णपणं, अविनाशीपणं, अत्यंत आनंदपणं, अंतररहित तेना अनुभवमां आवे छे. सर्व विभावपर्यायमा मात्र पोताने अध्यासथी औकयता थई छे, तेथी केवळ पोतानुं भिन्नपणुं ज छे ओम स्पष्टप्रत्यक्ष-अत्यंत प्रत्यक्ष-अपरोक्ष तेने अनुभव थाय छे. विनाशी अथवा अन्य पदार्थना संयोगने विषे तेने इष्ट-अनिष्टपणुं प्राप्त. थतुं नथी. जन्म, जरा, मरण, रोगादि बाधारहित संपूर्ण माहात्म्यनुं ठेकाणुं ओवू निजस्वरूप जाणी, वेदी ते कृतार्थ थाय छे. जे जे पुरुषोने जे छ पद सप्रमाण अवां परम पुरुषनां वचने आत्मानो निश्चय थयो छे,