SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०] [प्रतिक्रमण-आवश्यक अर्थ—सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा प्रत्याख्यान संवर और योग मम आत्म स्वरूप हैं अर्थात् आत्मा से ये कोइ भिन्न पदार्थ नहीं है। (श्लोक) एको मे शाश्वतश्चात्मा, ज्ञान, दर्शन लक्षणः । शेषा वहिर्भवाः भावाः सर्वे संयोग लक्षणः।। अर्थ—मैं एक शाश्वत् त्रिकाल स्थायी चैतन्य आत्मा हूँ, ज्ञान दर्शन ही मेरा सत्य लक्षण है, शेष रागादि भाव बाह्य पदार्थों के संयोग से पैदा होते है इसलिये मुझसे सर्वथा भिन्न हैं। (श्लोक) संयोगमूलं जीवेन, प्राप्ता दुःख परम्परा । तस्मात् संयोगसम्बन्धं त्रिधा सर्वं त्यजाभ्यहं ।। अर्थ-संयोग जन्य रागादिक भावों से ही मैंने अनादि परम्परा से अनन्त दुःख भोगे हैं इसलिये अब मैं इन संयोगिक भावों को मन, वचन, काय, से छोड़ता हूँ। __(श्लोक) एवं सामायिकात् सम्यक् सामायिकमखंडितम् । वर्तता मुक्ति मानिन्या, वशी चूर्णयितं मम्ः।। अर्थ-इस प्रकार समता पूर्वक की गई अखंड 'सामायिक' मुक्ति (रमा) को वश में करने के लिये मोहनी चूर्ण है। - (श्लोक) भगवन् नमोऽस्तु प्रसीदतु प्रभु पादान् । वंदिष्येऽहमिति एषोऽहं सर्व सावद्य योग विरतोऽस्मि ।।
SR No.009232
Book TitlePratikraman Aalochana Samayik Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Mumukshu Mahila Mandal
PublisherJain Mumukshu Mahila Mandal
Publication Year2002
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy