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________________ [२६ प्रतिक्रमण-आवश्यक ] अर्थ-मन, वचन, काया से अथवा कृत कारित, अनुमोदना, से मैंने अपने रत्नत्रय में जो दोष लगाये हों उनकी मैं निन्दा गर्दा करता हूँ और उनका परित्याग करता हूँ। (श्लोक) . तैरश्व, मानवं, दैवमुपसर्ग सहेऽधुना । काया-हार कषायादीन्, प्रत्याख्यामि त्रिशुद्धितः । अर्थ-तिर्यंञ्च, मनुष्य या देव कृत उपसर्ग को मैं इस समय धैर्य पूर्वक सहन करूँगा तथा शरीर आहार व कषायों को मन, वचन, काय से छोड़ता हूँ। (श्लोक) रागं द्वेषं भयं शोकं प्रहषौत्सुक्यदीनताः। व्युत्सृजामि त्रिधा, सर्वा मरतिं रतिमेव च।। अर्थ—मैं राग, द्वेष, भय, शोक हर्ष, विषाद दीनता तथा सब प्रकार की प्रीति और अप्रीति को मन वचन काय से छोड़ता हूँ। (श्लोक जीविते मरणे लाभेऽलाभे योगे विपर्यये । बन्धवारौ सुखे दुःखे सर्वदा समता मम ।। अर्थ-जीवन, मरण, लाभ--हानि, योग--वियोग, बन्धु-शत्रु, तथा सुख--दुःख में मेरे सदा समता भाव रहें।। . (श्लोक) आत्मैव मे सदा ज्ञाने दर्शने चरणे तथा। प्रत्याख्याने ममात्मैव, तथा संवरयोगयोः।।
SR No.009232
Book TitlePratikraman Aalochana Samayik Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Mumukshu Mahila Mandal
PublisherJain Mumukshu Mahila Mandal
Publication Year2002
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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