________________
१६८]
. [प्रतिक्रमण-आवश्यक दृष्टि करी एकाग्र थq एम आ श्लोकमां कडुं छे ।३१।
____ आत्मध्यानथी मुक्तिनी प्राप्ति :यैः परमात्माऽमितगतिवन्द्यः सर्वविविक्तो भृशमनवद्यः। शाश्वदधीतो मनसि लभन्ते, मुक्तिनिकेतं विभववरं ते॥३२॥
अन्वयार्थ :-[अमितगतिवन्धः] (आ पुस्तिकाना कर्ता अमितगति आचार्यद्वारा अथवा तो अपार ज्ञानसंपन्न गणधरादिद्वारा वंदित [ सर्व विविक्तः] सर्वथी भिन्न [भृशम् अनवद्यः] अत्यंत निर्दोष [परमात्मा] परमात्मा [यैः] जे (भव्य जीवो) द्वारा [शाश्वत् ] निरंतर [मनसि] एकाग्रचित्ते [अधीतः] ध्यावाय छे [ते] ते जीवो [विभववरं] उत्कृष्ट वैभवी [मुक्तिनिकेतं] मुक्तिनिवासने [लभन्ते] पामे छ ।
. विशेषार्थ त्रिकाळशुद्ध निजात्मा ज ध्यान करवा योग्य छ । अने तेनुं फळ मुक्ति छे, एम अहीं कह्यु छ। पण ए खास ध्यान राखq के प्रथम शुद्धात्मानुं स्वरूप जाण्या विना तेनुं ध्यान थई शके नहि। माटे मोक्षार्थीओए प्रथम शुद्धात्मस्वरूप जाणवू ने पछी शुद्धात्मानुं ध्यान करवू । आत्मानी ओळखाण विनानुं ध्यान तो ससलानां शिंगना ध्यान करवा समान मिथ्या छ। केटलाक जीवो आत्मस्वरूप समज्या विना जे ध्यान करे छे ते, धर्मध्यान नथी परंतु ते तो मूढतानी वृद्धि करनार ध्यानाभ्यास छे। माटे निज शुद्धात्मस्वरूप यथार्थ समझवा जीवे कटिबद्ध थर्बु योग्य छ ।३२।
अंतिम मंगळद्वारा सामायिकनुं फल :इति द्वात्रिंशतैर्वृत्तैः परमात्मानमीक्षते। योऽनन्यगतचेतस्को यात्यसौ पदमव्ययम् ।।३३॥