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प्रतिक्रमण-आवश्यक]
[१६७ [एवम] एम [विचारयत् ] विचारी [परः] पर-अन्य [ददाति ] आपे छे [इति] एवी [शेमुषीम् ] बुद्धि [विमुच्य] छोडी [अनन्यमानसः] आत्मावडे पोतानुं अनन्यपणुं विचारवू ।
विशेषार्थ १. एकद्रव्य अन्य द्रव्यर्नु कांईपण करी शकतुं नथी ए सिद्धान्त अहीं प्रतिपादन कर्यो छे। माटे कोइ पर मने सुख-दुःख, सगवड-अगवड के धन-मकान वगेरे कांइपण आपी शके ए मिथ्याबुद्धि छोडवी।
२. पूर्वे करेलां विकारी भावोनुं निमित्त पामीने स्वयं आवेलां जडकर्मो पण तने कांई करी शकता नथी; ज्यारे पर वस्तुनो संयोग-वियोग थवानो होय त्यारे कर्मनी उदयरूप हाजरी. होय एटलो संबंध जाणी लेवो। परंतु जीवना भावमां कर्मनो उदय कांइपण करी शकतो नथी। जो आ प्रमाणे यथार्थ जाणे तो ज जीव पोतानामां एकाग्र थई शके। जड कर्म उदयमां आवी जीवने फळ आपे एम कहेवू ते व्यवहारकथन छ। अहीं एटलो ज अर्थ समझवो के परवस्तुनो संयोग-वियोग स्वयं पोतपोताथी थाय छे, मात्र तेने अनुकूळ अघाति कर्मनो उदय ते समये स्वयं उदयरूपे होय छे; जीव ते समये स्वलक्ष चूकी संयोगर्नु लक्ष करे तो विकार थाय अने ते वखते घातिकर्मनो उदय थयो कहेवाय। जो जीव स्वलक्षमा रहीने विकार न करे तो ते ज घातिकर्मोनी निर्जरा थई एम कहेवाय। आ रीते जीवना भावनो आरोप कर्ममां आवे छ । आत्माना भाव आत्मामा छे अने कर्मनी ते वखतनी अवस्था तो कर्ममां ज छे ते आत्म प्रदेशथी छूटा पडवारूपे ज छे; ते कर्मो आत्माने कांइ करतां नथी। एम जाणी कर्मोनी अने संयोगनी दृष्टि छोडी पोतानुं पोताथी अनन्यपणुं विचारी, पोताना आत्मस्वरूपमां