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[प्रतिक्रमण-आवश्यक [आत्मनीनाम्] आत्मानी [निवृत्ति] निर्वृति (शांति-आनंद) [पिपासुना] इच्छनाराओए [विधा] मन-वचन-कायाना जोडाणथी हठी [असौ] आ संयोगना लक्षने [परिवर्जनीयः] छोडवू जोइए।
विशेषार्थ १. जीव अनादिथी सुखनो उपाय चूकी गयेल होवाथी अज्ञानभावे जन्म धारण करीने रखडे छ। अहीं जन्मने वननी उपमां आपी छे। जीव अज्ञानदशामां पोतानो स्वभाव चूकी पर ऊपर लक्ष करे छे अने तेमनाथी पोताने लाभ-नुकसान थाय एम ते माने छ। जे पर पदार्थो ऊपर पोते लक्ष करे छे ते पर पदार्थो 'संयोग' कहेवाय छ। संयोगथी लाभ-नुकसान थाय एवी ऊंधी मान्यतानी पकडने लीधे पर पदार्थो ने इष्ट-अनिष्ट मानीने तेना ग्रहण-त्याग करवानी आकुळता जीव सेवे छे; पर वस्तुओ संबंधी इच्छानो सतत् प्रवाह जोशभर चलावे छे ते ज दुःख छे, अने ते विकार होवाथी, अनेक प्रकारचं होय छे । ओछी आकुळता (पुण्य-भाव) पण खरेखर दुःख ज छे, छतां अज्ञानभावे तेने सुख मानी जीव भ्रमणा सेवे छे अने तेना फळरूपे जन्मरूप वनमां चक्कर मार्या करे छ।
२. ते दुःख टाळवा माटे स्ववस्तु अने पर वस्तुना स्वरूपने जाणी, यथार्थ भेदज्ञान करी, परतरफनुं लक्ष छोडी, स्वतरफ वळवू जोइए। एम करे तो ज जीवनुं दुःख मटे छे; ते सिवाय कोइपण अन्य उपाये दुःख मटे नहि।
प्रश्न-पुण्यथी दुःख मटे के नहि ?
उत्तर–ना; कारण के पर प्रत्येना लक्ष विना पुण्य थाय ज नहि; जो परना लक्षथी दुःख मटतुं होत तो आ जन्म वनमां मिथ्यादृष्टिने लायक बधां पुण्य, जीवे कर्यां छतां दुःख अने जन्म