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[प्रतिक्रमण-आवश्यक इदि वयणादो तित्थयरवयणविणिग्गयबीजपदं सुत्तं। तेण सुत्तेण समं वट्टदि उप्पज्जदि त्ति गणहरदेवम्मि ट्ठिदसुदणाणं सुत्तसमं । अर्यते परिच्छिद्यते गम्यते इत्यर्थों द्वादशांगविषयः, तेण अत्थेण समं सह वट्टदि त्ति अत्थसमं। दव्वसुदाइरिए अणवेक्खिय संजमजणिदसुदणाणावरणक्खओवसमसमुप्पण्ण-बारहंसुगदं सयंबुद्धाधारमत्थसममिदि ।
यमपटहका शब्द सुननेपर, अंगसे रक्तस्त्रावके होनेपर, अतिचारके होनेपर, तथा दाताओंके अशुद्धकाय होते हुए भोजन कर लेनेपर स्वाध्याय नहीं करना चाहिये ।।६२॥
तिलमोदक, चिउडा, लाई और पुआ आदि चिक्कण एवं सुगन्धित भोजनोंके खानेपर तथा दावानलका धुआं होनेपर अध्ययन नहीं करना चाहिये ।।६३।।
एक योजनके घेरेमें सन्यासविधि, महोपवासविधि, आवश्यकक्रिया एवं केशोंका लोंच होनेपर तथा आचार्योका स्वर्गवास होनेपर सात दिन तक अध्ययनका प्रतिषेध है। उक्त घटनाओंके योजन मात्रमें होनेपर तीन दिन तक तथा अत्यन्त दूर होनेपर एक दिन तक अध्ययन निषिद्ध है।।६४-६५॥
प्राणीके तीव्र दुःखसे मरणासन्न होनेपर या अत्यन्त वेदनासे तडफडानेपर तथा एक निवर्तन (एक वीधा या गुंठा) मात्रमें तिर्यंचोंका संचार होनेपर अध्ययन नहीं करना चाहिये ।।६।।
उतने मात्रमें स्थावरकाय जीवोंके घात रूप कार्यमें प्रवृत्त होनेपर, क्षेत्रकी अशुद्धि होनेपर, दूरसे दुर्गन्ध आनेपर अथवा अत्यन्त सडी गन्धके आनेपर, ठीक अर्थ समझमें न आने पर अथवा अपने शरीरके शुद्धिसे रहित होनेपर मोक्षसुखके चाहनेवाले व्रती पुरुषको सिद्धान्तका अध्ययन नहीं करना चाहिये ।।६७-६८।।