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३५. हम तुम एक हो गये
मेरे प्रभो, मेरे विभो,
इस विराट् विश्व में अनन्त की अनन्त चेतना मुखरित हो उठी है।
कण-कण में आत्म चेतना की ज्योति जल उठी है।
अन्तरिक्ष में ऊषा की गुलाबी लाली छा रही है सरोवर की लहरें गनत प्रतिबिम्ब से शोभायमान हैं ।
ऐसे ही सुन्दर समय में
मेरे मन रूपी अरुणांचल में
तू धीरे से उदित हो रहा है
स्वर्णिम आभा किनारे पर दिखाई दे रही है
जिसकी अनन्त छटा से
समग्र गगन मण्डल के बादल
स्वर्णिम हो उठे हैं
सम्पूर्ण मही में उल्लास छा रहा है। कण-कण तेरे स्वर्णाभ रंग से
पुलकित हो उठा है।
ऐसे में मेरे प्रभु मेरे प्रियतम तुम आये।
और हम तुम एक हो गये ।
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