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गुरुदेव कहते हैं...
दूसरों की गलती न देखकर उसके संयोगों पर विचार करना चाहिए और स्वयं के कमाँ को दृष्टिगत रखकर उन्हें ही जिम्मेदार मानना चाहिए तथा जहाँ स्वयं की गलती दिखाई दे वहाँ उसके परिमार्जन के लिए अधिक-से-अधिक शुभ कार्य करने की तमन्ना रखनी चाहिए।
संयमजीवन का वह प्रथम चातुर्मास ही था। स्थान था मलाड़देवकरणमूलजी जैन उपाश्रय । दिन था चतुर्दशी। संध्यासमय प्रतिक्रमण करने के बाद संथारा पोरिसि की विधि के बाद मैं सो गया था।
अचानक कोई मुझे जैसे उठा रहा हो ऐसा मुझे महसूस हुआ।मैंने आँखें खोलीं देखा तो सामने गुरुदेव आप ही खड़े थे।मैंतत्काल खड़ा हो गया।
"रात्रि स्वाध्याय किया?"
"नहीं।"
"क्यों?" "आज उपवास भी है और सिर में दर्द भी।"
"तो क्या हुआ?" "स्वाध्याय करने की इच्छा नहीं हो रही गुरुदेव।" "मन की इच्छा के अनुसार चलना चाहिए अथवा प्रभु की इच्छा के अनुसार ? सुनो, रात्रि-स्वाध्याय तो साधुता की परीक्षा है। गृहस्थ हजारों मुसीबतों के बीच भी यदि नौकरी पर जाता ही है तो क्या हमें मुसीबतों में आराधनाओं को छोड़ देना चाहिए? आसन पर बैठ जाओ और एक घण्टा स्वाध्याय करो, फिर चाहो तो सोजाना।" रोते रोते भी आपने मुझसे स्वाध्याय करवाया ही!
गुरुदेव! आपकी इस कठोरता के केन्द्र में करुणा ही थी यह समझ उन दिनों मुझमें होती तो सच उस समय मेरा चित्त आपके प्रति दुर्भाव से ग्रस्त नहीं हुआ होता।