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________________ गुरुदेव कहते हैं... उपकारियों का द्रोह, पूज्य पुरुषों की निन्दा और धर्म कीराई-ये। हिंसा-दुराचार आदि पापों से भी अति भयंकर पाप हैं। कारण ? हिंसा-दुराचारादि पापों में संभव है कि हदय कोमल हो, अति संक्लिष्ट और नितुरन भी हो, परन्तु उपकारियों के द्रोह, निन्दा आदि पापों में तो हवय के भाव निश्चित रूप से महासंक्लिष्ट एवं निहुर होते हैं। और इसीलिए उसका दीर्घकालीन गलत प्रभाव होता ही है। यह दुर्गतियों के भवों में जीव को भटका देता है। १९६४ का वर्ष था।स्थल था अचलगढ़। समय था गर्मी की छुट्टियों का। आयोजन था एक माह के युवा शिविर का | मैं उपस्थित था वहाँ एक शिविरार्थी के रूप में। जीवन में पहली बार मैंने आपके दर्शन किये। गुरुदेव ! सच कहूँ ? आपकी तपोमयी दुबली-पतली काया को देखकर मेरे मन में विचार आया था- "अरे ! यह साधु हमें पढ़ायेगा या हमें यहाँ से भाग जाने के लिए मजबूर कर देगा?" परन्तु...आपप्रवचनपीठिका पर विराजमान हुए।हम सब शिविरार्थी युवा आपश्री के सम्मुख बैठे। आपके कण्ठसे उत्फुल्ल वाणी फूटी,मालकांश राग में आपने नवकारमंत्र का गान किया जो अंतर की गहराइयों में समा गया। उस समय आपश्री की जो मुखमुद्रा थी वह आज भी साक्षात मेरी नजरों के समक्ष है।आपश्री के दोनों हाथ जुड़े हुए थे। आँखें लगभग बंद थीं और कण्ठ नवकार के गान में रत था ।बस, आपश्री के उस मंगलाचरण के श्रवणमात्र से मैं भीतर तक हिल गया । भीतर ही भीतर मुझे यह महसूस होने लगा कि यहाँ कुछ है। आपके पास निश्चित ही कुछ है-कुछ अलग ही वैभव। गुरुदेव! मुझे कल्पना भी नहीं थी कि मुझ जैसे अनगढ़ पत्थर पर एक सुविख्यात शिल्पी की दृष्टि पड़ेगी। प्रश्न केवल समय का ही था। छेनी की एक ही चोट पड़ी और परिमार्जन प्रारंभ....।
SR No.008925
Book TitleJivan Sarvasva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasundarsuri
PublisherRatnasundarsuriji
Publication Year
Total Pages50
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size23 MB
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