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________________ ॐ गुरुदेव कहते हैं... छोटी-छोटी बातों को प्रधानता देते रहने की दरिद्रता, व्यथित होते रहने की दुर्बलता और व्यथा से होने वाली क्षति को समझ न पाने की मूर्खता तो मैं कभी नहीं करुंगा-जीवन में यह दृढ़ निर्धारण कभी आपने किया है? सौराष्ट्र का एक छोटा-सा गाँव है।शाम को हम उस गाँव में पहुंचे हैं। जैनों के बीस-पच्चीस घर होंगे यहाँ । भाविक जैनेतरों के घर भी अच्छी संख्या में है। ठंड का मौसम है। रात के नौ बजने वाले हैं। मैं सोने की तैयारी कर रहा हूँ और गुरुदेव, तभी अचानक मैंने देखा कि ८-१० भाई आपके पास आकर विनती कर रहे हैं "साहब, प्रवचन देंगे?" मैं आपके पास ही खड़ा था गुरुदेव। आपने मुझसे पूछा, "रत्नसुंदर, प्रवचन देने जाओगे?" "गुरुदेव, बड़ी नींद आ रही है।'' "तुम सो जाओ, मैं खुद जा रहा हूँ। श्रावकों की इतनी भक्ति स्वीकार लेते हो और जब उन्हें प्रभु के वचन सुनाने की बात आती है तब अपने शरीर की सुखशीलता की पुष्टि करते हो? जिनशासन के अनन्त ऋण से मुक्त होने की कोई वृत्ति ही नहीं ? अनन्त काल से शरीर संभालते आये हो, सहलाते आये हो और उसी ने आत्मा का भवभ्रमण बढ़ाया है। उत्तम संयमजीवन को पाने के बाद भी यही मूर्खता करते रहना, यह कहाँ तक उचित है ? गुरुदेव! आपके इस आक्रोश के गर्भ में बसे संघप्रेम को देखकर हवय आपके चरणों में झुक जाता है। संघ को नमस्कार करने के बाद ही प्रभु देशना फरमाते -इस उक्ति को वास्तव में आप अपने जीवन में चरितार्थ करते रहे।
SR No.008925
Book TitleJivan Sarvasva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasundarsuri
PublisherRatnasundarsuriji
Publication Year
Total Pages50
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size23 MB
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