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श्री सुविधिनाथ स्तवन सुविधिनिजिनेश्वर ! देव! दया दीनपर करो, करुणावंत महंत विनति ए दिल धरो; भवसागरनी पार उतारो कर ग्रही, शक्ति अनन्तना स्वामी कहावोछो मही. तमनो शो छे भार कहो रवि आगळे, कीडीनो शो भार के कुंजरने गळे; कर्मतणो शो भार प्रभुजी ! तुम छते, सिंहत शो भार अष्टापद त्यां जते. शुं खद्योतनुं तेज के उपयोग नीकळे; तेम शुं मोहनुं जोर के उपयोग नीकळे; ससलानुं शुं जोर सिंह आगळ अहो ! अनेकांत ज्यां ज्योति एकांतनुं शुं कहो. परमप्रभु वीतराग राग त्यां शुं करे, देखी इन्द्रनी शक्ति के सुर सहु करगरे; प्राणजीवन वितराग हृदयमां मुज वस्या, ते देखी मोहयोध के सहु दूरे खस्या. गुण-पर्यायाधार! स्मरण त्हारुं खरं, ध्यान-समाधियोगे अलख निजपद वरुं;
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