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श्री चंद्रप्रभस्वामी स्तवन चंद्रप्रभु! पद राचुं हो चिद्घन! चंद्रप्रभु! पद राचुं; मन मान्यु ए साचुं हो चिद्धन! चंद्रप्रभु! पद राचुं. शुद्ध अखंड अनन्त गुण-लक्ष्मी, तेना प्रभु! तमे दरिया; सत्ताए ज्ञानादिक लक्ष्मी, व्यक्तिपणे तमे वरिया..... हो चि० १ अनाद्यानन्त, ने आदि-अनन्त, सत्ता-व्यक्ति सुहाया; अस्तिनास्तिमय धर्म अनन्ता, समय समयमां पाया.हो चि० २ क्षपकश्रेणिये उज्जवलध्याने, घातक कर्म खपाव्यां; दग्धरज्जुवत् कर्म अघाती, तेरमे चौदमे नसाव्यां. . हो चि० ३ केवलज्ञाने ज्ञेय अनन्ता, समय समय प्रभु! जाणो; अव्याबाध अनन्तु वीर्य, समय प्रभु! माणो. .......... हो चि० ४ ऋद्धि तमारी ते वीज मारी, कदीय न मुजथी न्यारी; । चंद्रप्रभु-आदर्श निहाळी, आत्मिकऋद्धि संभारी..... हो चि० ५ निजस्वजातीय सिंह निहाळी, अजवृन्दगत हरिचेत्यो; निज स्वजातीय सिद्ध संभारी,जीव स्वपदमां वहेतो.हो चि०६ अन्तर-दृष्टि अनुभव-योगे, जागी निजपद रहियो; बुद्धिसागर परम महोदय, शाश्वतलक्ष्मी लहियो.... हो चि० ७
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