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प्रभासः- हे प्रभो । संसार अनादि है तो वह अनन्त भी होना चाहिये.. जिसकी आदि नही. उसका अन्त कैसे हो सकता है ? और यदि संसार (जन्म-जरा-मरण के चक) का अन्त नहीं तो निर्वाण कैसे हो सकता है ? प्रभुः- हे सौम्य । द्रव्य और पर्याय में भिन्नता है. अनादि द्रव्य (जीव) का अन्त नहीं होता, परन्तु पर्याय का अन्त होता है, क्योंकि वह परिवर्तनशील है. संयोग का भी वियोग होता है. प्रत्येक भवमें शरीरका जीवनसे वियोग तुम्हें समझमें आता है., वैसे ही अनादि कर्म का भी वियोग होता है. प्रत्येक मनुष्य का वंश अनादि है., क्योंकि पिताके बिना पुत्र नहीं होता., फिरभी प्रत्येक को पुत्र होगा ही- ऐसा नियम नहीं है. पुत्र न होने पर अथवा होकर मर जाने पर किसीका वंश (अनादि होते हुए भी) रुक भी जाता है (उसका अन्त भी हो जाता है), उसी प्रकार जीवनके साथ कर्मका संयोग अनादिकाल से है, फिर भी संयम और तपस्यासे-निर्जरासे उस संयोगका अन्तभी हो जाता है. जीवकी कर्मसंयोग रहित शद्ध अवस्था को ही निर्वाण कहते हैं, जीवकी उस अवस्थामें संसार का (जन्म-जरा-मरण के चकका) अन्त हो जाता है. जीव परम ज्ञानी बन जाता है. प्रभासः- हे प्रभो । ज्ञानेन्द्रियोंके अभाव में मुक्तात्मा को परम ज्ञान होता है- यह कैसे मानाजाय ? प्रभुः- ज्ञान आत्मा का गुण है, इन्द्रियों का नहीं. जैसे परमाणु कभी रूपरहित नहीं होता, वैसे ही आत्मा ज्ञानरहित नहीं होती. कर्मों के आवरण से ज्ञानमें बाधा पडती है. वह आवरण हट जाने पर आत्माकी अव्याबाध ज्ञानवस्था प्रकट होती है, यही कारण है कि मुक्तात्मा को परम ज्ञान होता है. मुर्दा शरीर न सुन सकता है, न देख सकता है, न सूंघ सकता है. न चख सकता है और न छ सकता है. जबकि पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ उसमें नहीं है तो अनुभव कौनकर सकता है ? मुक्ता अवस्थामें जीवको सर्वोत्तम ज्ञान और दर्शन होता है, जिसे केवलज्ञान और केवल दर्शन कहते है. केवल ज्ञान और केवल दर्शनकी प्राप्ति जिसे होती है, वह आत्मा परमानन्द का अनुभव करती है. सर्वोत्तम सुखमें रमण करती है. प्रभासः- हे प्रभो । सुख तो पुण्यका फल है. मुक्तात्मा का पुण्य नष्ट हो जाता है तो उसे सुख कैसे मिल सकता है ?
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