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दूकानदार श्रावक था. सोचा कि यह अन्यत्र रहने वाला कोई साधर्मिक बन्धु मालूम होता है. पर्युषणपर्व मनानेके लिए यहाँ आया होगा. आर्थिक स्थिति इसकी बहुत साधारण होगी इसलिए बिना मुनाफा लिये ही दे देता हुँ, बोला "अच्छा, चार रूपये ही दे दो" यह सुनकर सेठ मफतलालने कहा : "दो रूपयों में देना है ?" दूकानदारने सोचा कि चलो आज दान ही कर दें एक रूपया लेने से तो मुफ्तमें देना अच्छा रहेगा. बोला "देखिये, आपके पास यदि पैसे की तंगी हो तो भी संकोच न करें मैं भी आपका साधर्भिक भाई हूँ आपको छाते की जरूरत हो तो मुफ्त में ले लें मुझे दानका पुण्य कमाने दें" सेठ मफतलाल चौंक कर बोले “यदि मुफ्त में देते हो तो एक नहीं, दो छाते लुंगा।" यही दशा हमारी है दो छातोंकी तरह हम भी दोनों हाथोंमें लड़डू चाहते है. हमें जात (आत्मा) भी चाहिये और जगत भी पैसा भी चाहिये और परमात्मा भी। दोनों मुफ्त चाहिये. यह सर्वथा असम्भव है बिना परिश्रम के उपलब्धि नहीं होती अच्छे बुरे कार्यों से पुण्य पाप का बन्ध होता है. उसी के उदय से अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ आती हैं, सुख-दुःख की अनुभूति होती है. शुभा-शुभ ग्रहों का हमारे जीवन के सुख दुःख से कोई सम्बन्ध नहीं है :
कर्मणो हि प्रधानत्वम्
किं कुर्वन्ति शुभा ग्रहा : वसिष्ठदत्तलग्नो पि
राम : प्रवजितो वने ॥ (कर्म की ही प्रधानता है. शुभ ग्रह क्या कर सकते है ? वसिष्ठ ऋषिने शुभ मुहुर्त (राम के राज्याभिषेक के लिए) निकाला फिर भी श्रीरामको बनमें जाना पड़ा ।) कर्म का दण्ड श्रीरामको भी वनवासी बनकर भोगना पड़ा । तब अन्य प्राणियों की बात ही क्या ? आद्य शंकराचार्यने भी कर्म का प्रतिपादन करते हुए लिखा है
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