________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
10 अदृश्य है, यह दृश्य है - आकाश शून्य है, यह नहीं - पृथ्वी द्विजिव्द ।
(शेषनाग) पर स्थित है, यह सिंहासन पर आसीन है-कामधेनु पशु है, यह मनुष्य है - कल्पवृक्ष काष्ठ है (कठोर है - जड है), यह ऐसा नहीं (कोमल है - सचेतन है) और इन्द्रमणि पत्थर (निर्जीव) है, यह सजीव है । तब ऐसे सज्जन का उपमान किसे बनाया जाय ? फिर चारों ओर दृष्टि दौडाने पर प्रभुकी गम्भीर वाणी का प्रभाव सृष्टिमें श्री इन्द्रभूतिको इस प्रकार दिखाई दिया:
सारसी सिंहशा
स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघपोतम् मार्जारी हंसबालं
प्रणयपरवशात् कोकिकान्ता भुजम् । वैराण्याजन्मजाता
न्यपि गलितमदा जन्तवो न्ये त्यजन्ति श्रुत्वा साम्यैकरू.
प्रशमित कलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ॥ केवल समभावमें रमण करने वाले तथा कषाय शान्त हो गये है जिसके, ऐसे मोहरहित योगी की वाणी को सुनकर हरिणी सिंहके बच्चे को, गाय बाघके बच्चे को और बिल्ली हंसके बच्चे को पुत्रकी बुद्धिसे (पुत्र के समान मानकर) स्पर्श करती है तथा मयूरी (मोरनी) प्रेमपूर्वक (स्नेहसे मजबूर होकर) साँप को छूती है - इसी प्रकार अन्य प्राणी भी गर्वरहित होकर अपने जन्मजात वैरका भी त्याग कर रहे हैं। ठीक ही कहा गया है - अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ॥ (अहिंसाकी प्रतिष्ठामें उस (अहिंसक) के निकट (प्राणी) वैरका त्याग कर देते हैं) अहिंसक व्यक्ति जिस भूमिपर विचरण करता है, उसका वातावरण बदल जाता है- पवित्र हो जाता है. आद्य शंकाराचार्यश्रीने अपने मठ की स्थापना के लिए उपयोगी भूमि शृंगेरी में पाई. वहीं सबसे पहला मठ स्थापित किया उन्होंने. क्यों वहीं ? अन्यत्र क्यों नहीं ? उस भूमि पर धरित एक दृश्यने उन्हें प्रभावित किया था. क्या था वह दृश्य ? देखिये सबसे पहले जब उनके मनमें यह विचार आया कि “मैं अपने पहले
१२
For Private And Personal Use Only