SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रभु महावीर के इन्द्रभूति आदि ग्यारह प्रधान शिष्य थे, जिन्हें गणधर कहा जाता है. शिष्य बननेसे पहले प्रत्येक विद्वान् के मनमें वेदवाक्यों के आधार पर एक-एक शंका थी. प्रथम सम्पर्क में ही प्रभुने जिस चर्चा द्वारा शंकासमाधान किया, वही "गणधरवाद" के नामसे प्रसिद्ध है. आइये, उस महत्त्वपूर्ण गम्भीर समाधानकारक सात्त्विक चर्चाका आज विस्तृत परिचय प्राप्त करें : आपापायां महापुर्याम् यज्ञार्थी सोमिलो द्विज :। तदाहूता : समाजग्मु रेकादश द्विजोत्तमा : ॥ अपापा नामक एक महानगरी थी, जो आजकल 'पावापुरी" कहलाती है. उसमें सोमिल नामक ब्राह्मण रहता था. एक बार उसने एक विशाल यज्ञका आयोजन किया. आयोजनको सफलतापूर्वक सम्पन्न करनेके लिए उसने उत्तम ब्राह्मण पंडितों को बुलाया. वे संख्यामें ग्यारह थे. प्रत्येक पंडितका अपना छात्रसंघ (शिष्यसमुदाय) था. समस्त पंडितों के कुल छात्रोंकी संख्या चवालीस सौ (४४००) थी. यज्ञानुष्ठानमें वे भी सब आये हुए थे. यज्ञमण्डपमें खूब चहल-पहल थी. यज्ञशाला में पधारे हुए उन वेदपाठी महापण्डितोंके शुभ नाम क्रमश : इस प्रकार थे :- १. इन्द्रभूति, २. अग्निभूति ३. वायुभूति ४. व्यक्त, ५. सुधर्मा, ६. मण्डित, ७. मौर्यपुत्र, ८. अकम्पित, ९.अचलभ्राता, १०. मेतार्य और ११. प्रभास. यद्यपि वेदवाक्योंके आधार पर प्रत्येक पण्डित के मनमें एक-एक शंका थी, परन्तु फिर भी वे अपनेको सर्वज्ञ मानते थे. अंहकारके कारण अपने मनकी शंका को वे मनमें ही छिपाये हुए थे. किसीके सामने प्रकट नहीं करते थे, क्योंकि प्रकट करने पर अपनी "लघुता" और समाधान करनेवालेकी "गुरुता" का सिक्का जम जाता. प्रश्न करनेसे लोग "अल्पज्ञ" समझते और अपनी सर्वज्ञताके अभिमानको चोट लगती. For Private And Personal Use Only
SR No.008738
Book TitleSanshay Sab Door Bhaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy