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५८. साधन और साध्य जिसे विभूति बनना है, उसे प्रथम आत्मा की अनुभूति करनी होगी । जिससे शरीर चलता है, उस आत्मा का ही विचार करना होगा, जो आत्म तत्त्व है, उसे मुक्त करना है; क्योंकि यह आत्मा कर्म के बंधनों में बँधकर चार गतियों में भटक रही है; जन्म, जरा, मरण के दुःखों को भोग रहा है ।
जब तक शरीर की संभाल रखनेवाली (आत्मा) है, तब तक ही स्नेहीजन हमारी संभाल रखते हैं । जो दृष्टिगोचर है, उसके नहीं, लेकिन जो दृष्टिगोचर नहीं है, उसी के सब मित्र हैं । जगत् में जो केन्द्रस्थ है, वह दिखाई नहीं पड़ता है और जो शरीर दिखाई पड़ता है, उसे रखनेवाली आत्मा ही है ।
शरीर तो आत्मा का मंदिर है, इसलिए शरीर को साधन और आत्मा को साध्य मानना चाहिए ।
आत्मा का स्वभाव तो सद्गुणप्रधान है, जबकि सभी अठारह दोष तो शरीर के हैं ।
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