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५६. निर्भयता
अविवेकी मानते हैं कि जगत में स्वयं का माँस सबसे मूल्यवान् वस्तु है और दूसरों का माँस सब से सस्ती वस्तु । जगत् में जब तक हमें दूसरे के जीवन की कोई कीमत मालूम नहीं होती तब तक हमें अहिंसा का मूल्य भी समझ में नहीं आता है । अगर हमें किसी का जीवन बलिदान देकर जीना पड़े तो उससे मौत कहीं अधिक अच्छी है । दूसरों के प्राण लेने में हमें बहुत ही दुःख होना चाहिए, क्योंकि हमें भव और वैर से मुक्त होना है ।
जो व्यक्ति हिंसक है, उसी को भय होता है । अहिंसक तो निर्भय होता है । इन्सान स्वयं निर्बल नहीं है, उसकी वृत्तियाँ उसे निर्बल बनाती हैं । अपने अपने में दोष हों तो ही मनुष्य निर्बल होता है । दोषमुक्त बनो । यदि इन्द्रियों पर काबू रखोगे तो तुम निर्भय हो जाओगे । 'पर' की आत्मा को अपनी आत्मा के समान ही मानना चाहिए |
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