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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२. चैतन्य जैसे जैसे चैतन्य का उपयोग बढ़ता जाता है, वैसे वैसे उसका विकास बढ़ता जाता है । मनुष्य के लिए सबसे अधिक उसका उपयोग है । उसके (ज्ञान और दर्शन के) उपयोग से वह कम से कम कर्मबंधन करता है । उदय में आये हुए कर्मों को प्रसन्नता से भोगने पर नये कर्म नहीं बंधते है और उदय में आये हुए कर्म खप जाते हैं । तिर्यंच जब बीमार होते हैं, तब उनकी सेवा कौन करता है ? ऐसे विचार अगर करेंगे तो लगेगा कि हम कितने सुखी हैं । गजसुकुमाल के मस्तक पर जब सिगड़ी जल रही थी, तब भी उनके मन में गजब की समता थी । वास्तवमें जीव का स्वभाव ही छोटे-छोटे दुःखों को बड़ा बना देता है । संसार की छोटी-छोटी बातों के बारे में आर्तध्यान करके वह नये कर्म बाँधता है । जीव की हर एक क्रिया और प्रवृत्ति के पीछे उपयोग होता है । जागते-सोते हर एक समय हमारा उपयोग रहता है । सोया हुआ मनुष्य भी आग लगी है ऐसा सुनकर फौरन बिस्तर से उठ भागता है। खुद का पोषण करना, रक्षण करना और भविष्य का विचार करना ये तीनों कार्य चैतन्यवान व्यक्ति का उपयोग' है । उपयोग के कारण ही चींटी के समान जीव भी अपने ई पोषण और रक्षण का विचार करते हैं। ३२ For Private And Personal Use Only
SR No.008736
Book TitleSamvada Ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmasagarsuri
PublisherArunoday Foundation
Publication Year1990
Total Pages139
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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