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२१. नय और प्रमाण
वस्तु का एकांगी दर्शन करानेवाला नय है । किसी एक ही बात को मुख्य बनाकर और जगत की अन्य सभी बातों को गौण बनाकर कुछ कहना नय है । नय अकेला सत्य नहीं है ।
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वस्तु के सभी पर्यायों के समाहार से एक वस्तु का ज्ञान होता है, यही प्रमाण है । नय में मिथ्यात्व होता है और प्रमाण में सम्यक्त्व होता है ।
जैन दर्शन प्रमाणरूपी पेट के अंदर नय को समाविष्ट करता है । सत्य और असत्य का मिश्रण अर्थात् जीवन का व्यवहार । व्यावहारिक असत्य में से सत्य को अलग कर लेना चाहिए | जैसे हम बोलते हैं- “हम गेहू बीन रहे हैं ।" लेकिन वास्तव में हम गेहूँ में से कंकर बीनते हैं ।
जीवन का व्यवहार नय और प्रमाण से ही चलता है । और नय प्रमाण को जान लेने के बाद सम्यक् दर्शन प्राप्त होता है ।
वस्तु को पकड़ना यह नय है और उसे
चारों ओर से देखना उसीका नाम प्रमाण है तत्त्वज्ञानियों ने नय को ही जैन तत्त्वज्ञान में 'प्रमाण' को भी अपनाया गया है ।
समग्रता में देखना । जगत् के अन्य अपनाया है, जबकि
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