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७६. ममत्व का त्याग
मोह राजाने हमें ममत्व की पटरी पर चढ़ा दिया है, जिससे मैं और मेरा करने में ही हमने अनंत भव गँवा दिये हैं । हमने मोहवश व्यर्थ ही संसार का भार बढ़ा दिया है इसलिए आठ दिन पहले की बात भी हम भूल जाते हैं । लेकिन ज्यों-ज्यों संयम बढ़ता जायेगा, त्यों-त्यों हमारी स्मृति भी तीव्र होती जायेगी 1 भवचक्र में चक्कर काटते-काटते हमारी सारी ताकत खर्च हो जाती है । इस ताकत को हमें एकत्र करना है, उसका सदुपयोग कर लें । मनुष्य अगर निश्चय करता है तो असंभव को भी संभव बना सकता है । इसीलिये नयसार' ने विकास करते-करते असंभव तीर्थंकर पद को भी संभव बनाया था । मन को पवित्र बनाने के बाद ही ध्यान में एकाग्रता आ सकती है ।
साधनों के बंधनरूप होने के बाद साध्य खो जाता है । जैसे-जैसे ज्ञनदशा आती है वैसे-वैसे आत्मा कर्म से मुक्त होती जाती है ।
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