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७१. काँटा दर्शन अर्थात् तत्त्व के प्रति रुचि । रुचि अर्थात् अंतर का उल्लास, अनुराग । जिनेश्वर भगवान राग-द्वेष से परे हैं । मनुष्य संसार में बैठा है । चाहे वह कितना ही तटस्थ रहने का प्रयत्न करे फिर भी उसके अंतर में थोड़ा तो राग-द्वेष का अंश रहेगा ही । जिनेश्वरोक्त तत्त्वों में राग-द्वेष नहीं होते । उदाहरणार्थ गौतम स्वामी का ही प्रसंग लें ।
आनंद श्रावक को प्राप्त अवधिज्ञान के विषय में गौतम स्वामी को शंका होती है । भगवान के पास आते हैं । भगवान जाहिर में गौतम स्वामी से कहते हैं, “गौतम ! आनंद की क्षमा माँग के आ । तेरी शंका व्यर्थ है ।” काँटे का स्वभाव अर्थात वीतराग का स्वभाव । काँटा सभी को समान मानता है । उसके लिए कोई अपना नहीं, कोई पराया नहीं।
जिनेश्वर भगवंत के वचन पर रुचि होना | ही श्रद्धा है । श्रद्धा से डर चला जाता है ।
ज्ञान होना यह अच्छी बात है, लेकिन उसके प्रति श्रद्धा होना यह अधिक अच्छी बात है । श्रद्धा होने से हमें कार्य करने के लिए बल मिलता है । रुचि का आना अर्थात् कार्य में गति का आना । श्रद्धा की निशानी ही यह है कि उससे कार्य में गति आती है ।।
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