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७०. पारसमणि मन को काबू में करने में ही मनुष्य की महत्ता है । भगवान महावीर महाभयंकर वन में आकर तीव्र साधना शुरू करते हैं । मनुष्य को जीवन में प्राप्त सद्गुणों का कसौटी पर कसना चाहिए । भगवान भी अपने को कसौटी पर कसते हैं । वहाँ एक क्रोधी सर्प आता है और विष से भरी हुई अपनी दृष्टि प्रभु के ऊपर स्थिर करता है । वह विषदृष्टि था, पर भगवान उसके जीवन से ही जहर को निकाल देते हैं।
जीवन का जहर उतारना अत्यंत कठिन होता है ।
भगवान परम प्रकाश मान थे, वे परम तेजोमय थे इसलिए उन पर उसके क्रोध का कोई असर नहीं हुआ । भगवान के चरणों पर विषाक्त दंश देकर सर्प दूर हट गया, फिर भी भगवान की काया तो प्रसन्नता से हँसती ही रही । सर्प के अज्ञान पर भगवान की करुणा बरसने लगी । भगवान के चरण में से रक्त के बदले दूध की धारा बही इसे देखकर उसे बहुत आश्चर्य हुआ । बालक के प्रति माता का प्रेम ही उसके रक्त को दूध बनाता है । भगवान तो समस्त जगत के माता-पिता के समान थे, उनके अंतर में प्रत्येक जीव को तारने के लिए अपार करुणा भरी थी, फिर
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