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६७. भावना भावना भवतारिणी है । जहाँ भावना है वहाँ भव्यता और दिव्यता है ।।
शालिभद्र ने पूर्वजन्म में असीम भावपूर्वक साधु को खीर वहोराई थी, इसलिए दूसरे भव में उसे असीम ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त
कुमारपाल ने हृदय की निर्मल भावना से अपने पांच कौड़ी के फूल प्रभु के चरणों में चढ़ाये परिणाम- स्वरूप अठ्ठारह देशों के राजा बने ।
अंतर के उल्लास सहित करने से कोई भी काम हलका हो जाता है । कार्य अपनी भावना पूरी करने के लिए करना है, बदले के लिए नहीं । कार्य के पीछे संगीत चाहिए । माता अपने पुत्र से कभी प्रमाणपत्र नहीं माँगती । तुम्हारा अपना कोई न हो फिर भी अगर जीवन में भावना होगी, तो जगत तुम्हारा बन जायेगा।
दान, शील, तप, भाव -- इन चार प्रकार के धर्मों से आत्मा का ज्ञान होगा । भगवान् महावीर के जीव को नयसार के भव में प्रथम भाव दान का हुआ था कि-'किसी को भोजन कराकर मैं भोजन करूँ । इस प्रकार अतिथि सत्कार की भावना उनके मन में जागृत हुई ।
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